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- ज्ञानार्णवः ।
२५९ अर्थ-अपने मनकी प्यारी वस्तुके विध्वंस होनेपर पुनः उसकी प्राप्तिके लिये जो क्लेशरूप होना सो दूसरे आर्तध्यानका लक्षण है । इस प्रकार दूसरा आर्तध्यान कहा ॥ ३१ ॥ अब तीसरे आर्तध्यानका वर्णन करते हैं,
शार्दूलविक्रीडितम् । कासश्वासभगन्दरोदरजराकुंष्टातिसारज्वरैः
पित्तश्लेष्ममरुत्प्रकोपजनित रोगैः शरीरान्तकः । स्यात्सत्त्वप्रवलैः प्रतिक्षणभवैर्ययाकुलत्वं नृणाम्
तद्रोगामिनिन्दितैः प्रकटितं दुर्वारदुःखाकरं ॥३२॥ अर्थ-वातपित्तकफके प्रकोपसे उत्पन्न हुए शरीरको नाश करनेवाले वीर्यसे प्रवल और क्षण २ में उत्पन्न होनेवाले कास श्वास भगंदर जलोदर जरा कोढ़ अतिसार ज्वरादिक रोगोंसे मनुष्योंके जो व्याकुलता होती है उसे अनिंदित पुरुषोंने रोगपीडाचिन्तवननामा आर्तध्यान कहा है. यह ध्यान दुर्निवार और दुःखोंका आकर है जो कि आगामी कालमें पापबंधका कारण है ॥ ३२ ॥
स्वल्पानामपि रोगाणां माभूत्वप्नेपि संभवः ।
ममेति या नृणां चिंता स्यादात तत्तृतीयकम् ।। ३३॥ अर्थ-जीवोंके ऐसी चिंता हो कि मेरे किंचित् भी रोगकी उत्पत्ति खममें भी न हो ऐसा चितवना सो तीसरा आर्तध्यान है ॥ ३३ ॥
अब चौथे आर्तध्यानको कहते हैं,
स्रग्धरा।
भोगा भोगीन्द्रसेव्यास्त्रिभुवनजयिनी रूपसाम्राज्यलक्ष्मी
राज्यं क्षीणारिचक्रं विजितसुरवधूलास्थलीला युवत्यः ।
अन्यच्चानन्दभूतं कथमिह भवतीत्यादि चिन्तासुभाजाम् - यत्तद्भोगार्थमुक्तं परमगुणधरैर्जन्मसन्तानमूलम् ।। ३४ ॥
अर्थ-धरणीन्द्रके सेवने योग्य तौ भोग और तीन भुवनको जीतनेवाली रूपसाम्राज्यकी लक्ष्मी, तथा क्षीण हो गये हैं शत्रुओंके समूह जिसमें ऐसा राज्य, और देवांगनाओंके नृत्यकी लीलाको जीतनेवाली स्त्री इत्यादि और भी आनंदरूप वस्तुयें मेरे कैसे हो, इस प्रकारके चितवनको परम गुणोंको धारण करनेवालोंने भोगात नामा चौथा आर्तध्यान कहा है और यह ध्यान संसारकी परिपाटीसे हुआ है और संसारका मूल कारण भी है ।। ३४ ॥ १'जन्मसन्तानसूत्रं' इत्यपि पाठः ।