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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् फिर भी कहते हैं,
तथा चरस्थिरैर्भावैरनेकैः समुपस्थितैः ।
अनिष्टैर्यन्मनः क्लिष्टं स्यादात तत्मकीर्तितम् ॥ २६ ॥ अर्थ-तथा चर और स्थिर अनेक अनिष्ट पदार्थों के प्राप्त होनेपर जो मन केशरूप हो उसको भी आर्तध्यान कहा है ॥ २६ ॥
श्रुतैदृष्टैः स्मृतातैः प्रत्यासत्तिं च संसृतः ।
योऽनिष्टार्थमनाक्लेशः पूर्वमात तदिष्यते ॥ २७ ॥ अर्थ तथा जो सुने देखे स्मरणमें आये जाने हुए तथा निकट प्राप्त हुए अनिष्ट पदार्थोंसे मनको क्लेश हो उसे पहिला आर्तध्यान कहते हैं ।। २७ ॥
अशेषानिष्टसंयोगे तद्वियोगानुचिन्तनम् ।
यत्स्यात्तदपि तत्वज्ञैः पूर्वमात प्रकीर्तितम् ॥ २८ ॥ अर्थ-जो समस्त प्रकारके अनिष्ट पदार्थों के संयोग होनेपर उनके वियोग होनेका वारंवार चिन्तवन हो उसे भी तत्त्वके जाननेवालोंने पहिला अनिष्टसंयोग नामा आर्तध्यान कहा है ॥ २८॥ अब दूसरे-इष्टवियोग नामा आर्तध्यानका वर्णन करते हैं,
शार्दूलविक्रीडितम् । राज्यैश्वर्यकलत्रवान्धवसुहृत्सौभाग्यभोगात्यये
चित्तप्रीतिकरप्रसन्नविषयप्रध्वंसभावेऽथवा । संत्रासभ्रमशोकमोहविवशैर्यत्खिद्यतेऽहर्निशम्
तत्स्यादिष्टवियोगजं तनुमतां ध्यानं कलङ्कास्पदम् ॥ २९ ॥ अर्थ-जो राज्य ऐश्वर्य स्त्री कुटुंब मित्र सौभाग्य भोगादिके नाश होनेपर तथा चित्तको प्रीति उत्पन्न करनेवाले सुन्दर इन्द्रियोंके विपयोंका प्रध्वसभाव होते हुए संत्रास पीडा श्रम शोक मोहके कारण निरन्तर खेदरूप होना सो जीवोंके इष्टवियोगजनित आर्तध्यान है और यह ध्यान पापका स्थान है ॥ २९ ॥
दृष्टश्रुतानुभूतैस्तैः पदाथै श्चित्तरञ्जकैः ।
वियोगे यन्मनः खिन्नं स्यादात तद्वितीयकम् ॥ ३०॥ अर्थ-देखे सुने अनुभवे मनको रंजायमान करनेवाले पूर्वोक्त पदार्थोका वियोग होनेसे जो मनको खेद हो वह भी दूसरा आर्तध्यान है ॥ ३०॥
मनोज्ञवस्तुविध्वंसे मनस्तत्संगमर्थिभिः । क्लिश्यते यत्तदेतत्स्याद्वितीयातस्य लक्षणम् ॥ ३१॥