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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् यदैव संयमी साक्षात्समत्वमवलम्बते ।
स्यात्तदैव परं ध्यानं तस्य कौघघातकम् ॥ ४ ॥ अर्थ-जिस समय संयमी साक्षात् समभावको अवलंबन करता है उसी समय ही उसके कर्मसमूहका घात करनेवाला ध्यान होता है । भावार्थ-समता भावके विना ध्यान कर्मीका क्षय करनेका कारण नहीं होता ॥ ४ ॥
अनादिविभ्रमोद्भूतं रागादितिमिरं धनम् ।
स्फुटयत्याशु जीवस्य ध्यानाकः प्रविजृम्भितः ॥५॥ अर्थ-अनादि कालके विभ्रमसे उत्पन्न हुआ रागादिक अन्धकार अति निविड़ (सघन) है सो ध्यानरूपी सूर्य उदय होकर जीवके उस अन्धकारको तत्काल दूर कर देता है ॥ ५॥
भवज्वलनसम्भूतमहादाहपशान्तये ।
शश्वद्ध्यानाम्बुधेीररैवगाहः प्रशस्यते ॥६॥ अर्थ-संसाररूपी अमिसे उत्पन्न हुए बड़े आतपकी प्रशान्तिके लिये धीरवीर पुरुषों के द्वारा ध्यानरूपी समुद्रका अवगाहन (स्नान ) करना ही प्रशंसा किया जाता है ॥६॥
ध्यानमेवापवर्गस्य मुख्यमेकं निवन्धनम् ।
तदेव दुरितत्रातगुरुकक्षहुताशनम् ॥७॥ अर्थ-यह प्रशस्त ध्यान ही मोक्षका एक प्रधान कारण है, और यह ही पापके समूहरूपी महाबनके दग्ध करनेको अग्निके समान है ।। ७॥
अपास्य खण्डविज्ञानरसिकां पापवासनाम् ।
असद्ध्यानानि चादेयं ध्यानं मुक्तिप्रसाधकम् ॥८॥ अर्थ-खण्डविज्ञान कहिये क्षयोपशम रागादि सहित ज्ञानमें आसक्तरूप पापकी वासनाको तथा अन्यान्यमतावलम्बियोंके माने हुए आर्त रौद्रादि असत् ध्यानोंको छोड़कर मुक्तिको साधनेवाले ध्यानका आदर करना चाहिये अर्थात् ग्रह्ण करना चाहिये ॥ ८॥ . अप्रशस्त ध्यान क्या है सो कहते हैं,
अहो कैश्चिन्महामूरैरज्ञैः खपरवञ्चकैः ।
ध्यानान्यपि प्रणीतानि श्वभ्रपाताय केवलम् ॥९॥ अर्थ-अहो! आश्चर्य है कि अनेक महामूर्ख अज्ञानी खपरको वंचनेवालोंने ध्यान भी केवल नरकमें ले जानेवाले कहे हैं ॥ ९॥
विषायतेऽमृतं यत्र ज्ञानं मोहायतेऽथवा । ध्यानं श्वभ्रायते कष्टं नृणां चित्रं विचेष्टितम् ॥१०॥