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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम्
अनिष्ट बुद्धि और ममत्व नहीं होता । ऐसे साम्यभाव सहित मुनिके ही मोक्षके कारणस्वरूप ध्यानकी सिद्धि होती है, इस कारण साम्यका वर्णन करते हैं,
मोहवमिपाकर्तु खीकर्तुं संयमश्रियम् ।
छेत्तुं रागद्रुमोद्यानं समत्वमवलम्ब्यताम् ॥ १ ॥
अर्थ - हे आत्मन् ! मोहरूप अग्निको बुझानेके लिये और संयमरूपी लक्ष्मीका ग्रहण करनेके लिये तथा रागरूप वृक्षोंके समूहको काटनेके लिये समभावको ( समताको ) अवलंबन कर ऐसा उपदेश है ॥ १ ॥
चिचिलक्षणैर्भावैरिष्टानिष्टतया स्थितैः ।
न मुह्यति मनो यस्य तस्य साम्ये स्थितिर्भवेत् ॥ २ ॥
! अर्थ - जिस पुरुषका मन चित् ( पुत्र कलत्रशत्रु मित्रादि ) अचित्_ ( धनधान्यतृण• कंचनादि ) इष्ट अनिष्टरूप पदार्थोंके द्वारा मोहको प्राप्त नहीं होता, उस पुरुषके ही साम्य. भाव में स्थिति होती है. यह साम्यभावका लक्षण है ॥ २ ॥
विरज्य कामभोगेषु विमुच्य वपुषि स्पृहाम् । समत्वं भज सर्वज्ञज्ञानलक्ष्मीकुलास्पदम् ॥ ३ ॥
अर्थ - हे आत्मन् ! तू काम और भोगादिकमें विरक्त हो, शरीरमें वांछा आसक्तता छोड़कर समताको भज (सेव), क्योंकि यह समताभाव केवल ज्ञानलक्ष्मीका ( लोकालोकके जाननेका) कुलगृह है अर्थात् यह लक्ष्मी समभावमें ही है ॥ ३ ॥
छित्वा प्रशमशस्त्रेण भवव्यसनवागुराम् ।
मुक्तेः स्वयंवरागारं वीर व्रज शनैः शनैः ॥ ४ ॥
अर्थ- हे आत्मन् हे वीर ! तू शान्तभावरूपी शस्त्रसे संसारिक कष्टरूप (आपदारूप ) फांसीको छेद कर मुक्तिरूप स्त्रीके स्वयंवरके स्थानको शनैः शनैः गमन कर । भावार्थशान्तभाव होनेसे मार्ग में रोकनेवाला कोई भी नहीं है इस कारण मंदमंद गति से निःशंकतया मोक्षस्थानको गमन कर, यह धीरज बँधाया है ॥ ४ ॥
साम्यसूर्यांशुभिर्भिन्ने रागादितिमिरोत्करे । प्रपश्यति यमी स्वस्मिन्स्वरूपं परमात्मनः ॥ ५ ॥
अर्थ-संयमी मुनि समभावरूपी सूर्यकी किरणोंसे रागादितिमिरसमूहके नष्ट होनेपर परमात्माका स्वरूप अपनेमें ही अवलोकन करता है । भावार्थ - परमात्माका स्वरूप अनन्तचतुष्टयरूप है सो रागादिक तिमिरसे आच्छादित है सो समभावके प्रकाश होनेपर आपहीमें दीखता है ॥ ५ ॥