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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । अर्थ-इस रागद्वेषरूप विषके वनका बीज मोह ही है ऐसा भगवान्ने कहा है इस 'कारण यह मोह ही समस्त दोषोंकी सेनाका राजा है ॥ ३० ॥ - असावेव भवोद्भूतदाववह्निः शरीरिणाम् ।
तथा दृढतरानन्तकर्मबन्धनिबन्धनम् ॥ ३१॥ __ अर्थ-यह मोह ही जीवोंके संसारसे उत्पन्न हुआ दावानल है तथा अतिशय दृढ़ अनन्त कर्म बन्धनका कारण है ॥ ३१॥
रागादिगहने खिन्नं मोहनिद्रावशीकृतम् । - जगन्मिथ्याग्रहाविष्टं जन्मपङ्के निमजति ।। ३२॥ __ अर्थ-यह जगत् रागादिके गहन बनम खेदखिन्न हुआ मोहरूप निद्राके वशीभूतं हो मिथ्यात्वरूपी पिशाचसहित होनेसे संसाररूपी किचडमें डूबता है । यहां खेद निद्रा पिशाच ये तीनों ही वे खवर होनेके कारण हैं यह आत्मा इन कारणांसे अपनेको भूलकर कीचरूप संसारमें डुवाता है ॥ ३२ ॥
स पश्यति मुनिः साक्षाद्विश्वमध्यक्षमासा।
या स्फोटयति मोहाख्यं पटलं ज्ञानचक्षुपा ॥ ३३ ॥ अर्थ-जो मुनि मोहरूपी पटलको दूर करता है वह मुनि शीघ्र ही समस्त लोकको ज्ञानरूपी नेत्रोंसे साक्षात् प्रत्यक्ष (प्रगट) देखता है ॥ ३३ ॥
इयं मोहमहाज्वाला जगत्रयविसर्पिणी।
क्षणादेव क्षयं याति लाव्यमाना शमाम्बुभिः ॥ ३४॥ अर्थ-यह मोहरूप महा अमिकी ज्वाला तीन जगतमें फैलनेवाली है. इसको शान्तभावरूप जलसे सेचन किया जाय तो यह क्षणमात्रमें क्षय हो जाती है ॥ ३४ ॥ ' ' यस्मिन्सत्येव संसारी यद्वियोगे शिवोभवेत् ।
जीवः स एव पापात्मा मोहमल्लो निवार्यताम् ॥ ३५॥ अर्थ-हे आत्मन् ! जिस मोहमलके होनेसे यह जीव संसारी है और जिसके वियोग होनेसे मोक्षखरूप होता है वही यह पापी मोहमल्ल है सो इसे निवारणकर ।। ३५ ॥
यत्संसारस्य वैचित्र्यं नानात्वं यच्छरीरिणाम् ।।
यदात्मीयेष्वनात्मस्था तन्मोहस्यैव वल्गितम् ॥ ३६ ॥ , अर्थ-जीवोंके जो संसारकी विचित्रता, अनेकप्रकारता, तथा अपने भावोंमें अनात्मपनेकी आस्था है सो ये सब मोहके ही विलास हैं अर्थात् मोहकी ही चेष्टा है ॥ ३६ ॥
रागादिवैरिणः क्रूरान्मोहभूपेन्द्रपालितान् । . निकृत्य शमशस्त्रेण मोक्षमार्ग निरूपय ॥ ३७॥