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ज्ञानार्णवः ।
२४९ अर्थ-जिस समय यह आत्मा अपनेको समस्त परद्रव्योंके पर्यायोंसे तथा परद्रव्योंसे विलक्षण भिन्नखरूप निश्चय करता है उसी काल साम्यभाव उत्पन्न होता है ॥१७॥
तस्यैवाविचलं सौख्यं तस्यैव पदमव्ययम् ।
तस्यैव बन्धविश्लेषः समत्वं यस्य योगिनः॥१८॥ अर्थ-जिस योगीश्वरके समभाव है उसके ही तो अविचल सुख है और उसके ही अविनाशी पद और कर्मवन्धकी निर्जरा है ॥ १८ ॥
यस्य हेयं न चादेयं जगद्विश्वं चराचरम् ।
स्यात्तस्यैव मुनेः साक्षाच्छुभाशुभमलक्षयः ॥ १९॥ अर्थ-जिस मुनिके चराचररूप समस्त जगतमेंसे न तो कोई हेय है न उपादेय हैउस मुनिके ही शुभाशुभरूप कर्मरूपी मैलका साक्षात् क्षय है ॥ १९ ॥ . अव साम्यका प्रभाव कहते हैं,
शाम्यन्ति जन्तवः क्रूरा बद्धवैराः परस्परम् ।
अपि स्वार्थे प्रवृत्तस्य मुनेः साम्यप्रभावतः ॥२०॥ अर्थ-इस साम्यके प्रभावसे अपने खार्थमें प्रवृत्त मुनिके निकट परस्पर वैर करने,.' वाले क्रूर जीव भी साम्यभावको प्राप्त हो जाते हैं। भावार्थ-मुनि तो अपने स्वरूपके साधनार्थ साम्यभावोंसे प्रवर्त्तते हैं किन्तु उनकी साम्यमूर्ति अवलोकन करके उनके निकट रहनेवाले क्रूर सिंहादिक भी परस्पर वैरभाव छोड़ समताका आश्रय कर लेते हैं ऐसा ही साम्यभावका माहात्म्य है ॥ २० ॥
भजन्ति जन्तवो मैत्रीमन्योऽन्यं त्यक्तमत्सराः।
समत्वालम्बिनां प्राप्य पादपद्मार्चितांक्षितिम् ॥ २१ ॥ अर्थ-समभावके अवलंवन करनेवाले मुनियोंके चरणकमलोंके प्रभावसे पूजनीय पृथिवीको प्राप्त होनेपर प्राणीजन परस्परका ईभाव छोड़कर मित्रताको प्राप्त हो जाते हैं ॥ २१॥
शाम्यन्ते योगिभिः क्रूरा जन्तवो नेति शङ्कयते ।
दावदीसमिवारण्यं यथा वृष्टैलाहकैः ॥ २२ ॥ अर्थ-योगिगण क्रूर जीवोंको उपाय करके शान्तरूप करते हैं ऐसी शंका कदापि नहीं करनी चाहिये । क्योंकि, जैसे दावानलसे जलताहुआ बन खयमेव मेघ बरसनेसे शान्त हो जाता है उसी प्रकार मुनियोंके तपके प्रभावसे स्वयं ही क्रूर जीव समतारूप प्रवर्त्तनें लग जाते हैं. योगीश्वर उनको प्रेरणा कदापि नहीं करते ॥ २२ ॥