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. ज्ञानार्णवः। भावार्थ-उपसर्ग करनेवाला अपना प्राण नाश करे तोभी मुनिको क्षमाही करनी चाहिये, सत्पुरुषोंने इसका इलाज यह कहा है, किंतु क्रोध करना समीचीन नहीं है ॥३॥
इयं निकपभरद्य सम्पन्ना पुण्ययोगतः। . शमत्वं किं प्रपन्नोऽस्मि न वेत्यद्य परीक्ष्यते ।। ३५ ॥ अर्थ-यह क्षमा है सो इससमय मेरी परीक्षा करनेकी जगह है और पुण्ययोगसे मुझे प्राप्त हुई है सो मेरी परीक्षा करके देखती है कि मैं शान्तभावको प्राप्तहूं की नहीं। भावार्थजो उपसर्ग आनेपर क्षमा करदे तो जानना कि इसके शान्त भाव है, जो क्षमा नहीं करतो शान्तभाव नहीं । इसप्रकार परीक्षा क्षमासेही होती है । क्षमा इसकी कसौटी है ॥ ३५ ॥
स एव प्रशमः श्लाध्यः स च श्रेयोनिवन्धनम् । __अयहन्तुकामैयो न पुंसः कश्मलीकृतः ।। ३६ ॥
अर्थ-पुरुपोंके वही प्रशम भाव प्रशंसनीय है और वही कल्याणका कारण है, जो मारनेकी इच्छा करके निर्दय पुरुषोंने मलिन नहीं किया । भावार्थ-उपसर्ग आनेपर क्रोधरूपी मैलसे मलिन न हो वही प्रशमभाव सराहने योग्य है ।। ३६ ॥
चिराभ्यस्तेन किं तेन शमेनास्त्रेण वा फलम् । - व्यर्थीभवति यत्कार्य समुत्पन्ने शरीरिणाम् ॥ ३७॥
अर्थ-जीवोंके चिरकालसे अभ्यास किये हुए शमभाव और शस्त्र चलानेका अभ्यास काम पड़नेपर व्यर्थ हो जाय तो उस शमभाव वा शस्त्रविद्या सीखनेसे क्या फल । भावार्थ-उपसर्ग आनेपर क्षमा नहीं की और शत्रुके सम्मुख आनेपर शस्त्रविद्याका प्रयोग नहीं किया तो उनका अभ्यास करना व्यर्थही हुआ ॥ ३७ ।।
प्रत्यनीके समुत्पन्ने यद्वैर्य तद्धि शस्यते ।
स्यात्सर्वोऽपि जन स्वस्थः सत्यशौचक्षमास्पदः ॥ ३८॥ अर्थ-वस्थ चित्तवाले तो सवही प्रायः सत्य शौच क्षमादि युक्त होते हैं, परन्तु उपसर्ग करनेवाले शत्रुके आनेपर धैर्य रखना ही धैर्यगुण प्रशंसा करने योग्य है ॥ ३८ ॥
· वासीचन्दनतुल्यान्तर्वृत्तिमालम्ब्य केवलम् । _ आरब्धं सिद्धिमानीतं प्राचीनमुनिसत्तमैः ॥ ३९ ॥ अर्थ-प्राचीन बड़े २ मुनिमहाराजोंने प्रारंभ किये हुए मोक्षकार्यको साधन किया है सो केवल वसूले और चंदनके समान अन्तर्वृत्तिको (शमभावरूप वृत्तिको ) आलंबन करके ही साधन किया है । भावार्थ-कुठारसे चंदन काटा जाय तो वह चंदनवृक्ष जिसप्रकार कुठारकी धारको सुगन्धित करता है अथवा काटनेवालेको सुगन्धप्रदानसे प्रसन्न करता है उसी प्रकार मुनिमहाराज कोईमी उपसर्ग करता हो तो उसका