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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम्
चित्तके जीतनेका भी अभ्यास नहीं किया और न कभी वैराग्यको प्राप्त हुए तथा न कभी आत्माको दुःखी ही समझा और वृथा ही मोक्षप्राप्तिके लिये ध्यानसाधनमें प्रवृत्त हो गये, उन्होंने अपने आत्माको ठगलिया और वे इसलोक और परलोक दोनोंहीसे भ्रष्ट हो गये । भावार्थ - जो इन्द्रिय और मनको जीते विना तथा ज्ञानवैराग्यकी प्राप्तिके विना ही मोक्षके लिये ध्यानका अभ्यास करते हैं, वे मूर्ख अपने दोनों भव बिगाड़ते हैं ॥ २१ ॥ २२ ॥
अब कहते हैं कि योगियोंका सुख इन्द्रियोंके विना ऐसा है :
अध्यात्मजं यदत्यक्षं स्वसंवेद्यमनश्वरम् ।
आत्माधीनं निराबाधमनन्तं योगिनां मतम् ॥ २३ ॥
अर्थ — योगियोंका अध्यात्मसे उत्पन्न अतीन्द्रिय सुख आत्माके ही ( अपनेही ) अधीन है अर्थात् स्वयं ही उत्पन्न हुआ है, किंतु इन्द्रियोंके द्वारा विषयोंसे नहीं हुआ है। तथा— आत्माहीसे जानने ( भोगने ) योग्य है अर्थात् स्वानुभवगम्य है, और अविनाशी है, अर्थात् इन्द्रियजनित सुखकी समान विनाशी नहीं है, स्वाधीन है, व बाधारहित है । अर्थात् जिसमें कुछ भी बिगाड़ वा विघ्न नहीं होता तथा अनंत अर्थात् अन्तरहित है । जो कोई यह समझते हैं कि इन्द्रियोंके विना सुख कैसा ? उनको यह अनिंद्रिय सुखका स्वरूप बतलाया गया है ॥ २३ ॥
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अपास्य करणग्रामं यदात्मन्यात्मना स्वयम् ।
सेव्यते योगिभिस्तद्धि सुखमाध्यात्मिकं मतम् ॥ २४ ॥
अर्थ - जो इन्द्रियोंके विषयोंके विना ही अपने आत्मामें आत्मासे ही सेवन करनेमें आता है उसको ही योगीश्वरोंने आध्यात्मिक सुख कहा है ॥ २४ ॥
आपातमात्र रम्याणि विषयोत्थानि देहिनाम् ।
विषपाकानि पर्यन्ते विद्धि सौख्यानि सर्वथा ॥ २५ ॥
अर्थ- हे आत्मन् ! जीवोंके विषयजनित सुख कैसे हैं कि सेवनके आरंभमात्रमें तो कुछ रम्य भासते हैं परन्तु विपाकसमयमें सर्वथा विषकी समानही जानिये ॥ २५ ॥ हृषीकतस्करानीकं चित्तदुर्गान्तराश्रितम् ।
पुंसां विवेकमाणिकां हरत्येवानिवारितम् ॥ २६ ॥
अर्थ — यह इंद्रियरूपी चोरोंकी सेना ( फौज ) चित्तरूपी दुर्ग ( किले ) के आश्रय में रहती है, जो पुरुषोंके विवेकरूपी रत्नको हरती है अर्थात् चुराती है और रोकी भी नहीं रुकती है ॥ २६ ॥
त्वामेव वञ्चितुं मन्ये प्रवृत्ता विषया इमे ।
स्थिरीकुरु तथा चित्तं यथैतैर्न कलङ्कयते ॥ २७ ॥