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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् हैं वे ही निश्चयतः मुक्तिरूपी स्त्रीके करग्रहणको प्राप्त होते हैं । भावार्थ-ऐसे पुरुषोंसे ही मुक्तिरूपी स्त्री विवाहित होती है ॥ ८ ॥
अतस्तदेव संरुध्य कुरु वाधीनमासा ।
यदि छेत्तुं समुद्युक्तस्त्वं कर्मनिगडं दृढम् ॥९॥ अर्थ-आचार्य महाराज कहते हैं कि अतएव हे भव्यात्मन् ! यदि तू कर्मरूपी दृढ वेड़ियोंको काटनेके लिये उद्यमी हुआ है तो उस मनको ही समस्त विकल्पोंसे रोककर शीघ्र ही अपने वशमें कर ॥ ९ ॥
सम्यगस्मिन्समं नीते दोषा जन्मभ्रमोद्भवाः। - जन्मिनां खलु शीर्यन्ते ज्ञानश्रीप्रतिवन्धकाः ॥१०॥ अर्थ-इस मनको भलेप्रकार समभावरूप प्राप्त करनेसे जीवोंके ज्ञानरूपी लक्ष्मीके प्रतिबन्धक, संसारके भ्रमणसे उत्पन्न हुए दोष निश्चय करके नष्ट हो जाते हैं ॥ १० ॥
एक एव मनोदैत्यजयः सर्वार्थसिद्धिदः । __ अन्यत्र विफलः क्लेशो यमिनां तजयं विना ॥११॥ अर्थ-संयमी मुनियोंको एक मात्र मनरूपी दैत्यका जीतना ही समस्त अर्थोंकी सिद्धिका देनेवाला है; क्योंकि इस मनको जीते विना अन्य व्रत नियम तप व शास्त्रादिकमें क्लेश करना व्यर्थ ही है ॥ ११ ॥
एक एव मनोरोधः सर्वाभ्युदयसाधकः ।
यमेवालम्व्य संप्राप्ता योगिनस्तत्त्वनिश्चयम् ॥१२॥ अर्थ-एक मनका रोकना ही समस्त अभ्युदयोंका साधनेवाला है क्योंकि मनोरोधका आलंबन करके ही योगीश्वर तत्त्वनिश्चयताको प्राप्त हुए हैं ॥ १२ ॥
पृथक्करोति यो धीरः खपरावेकतां गतौ ।
स चापलं निगृह्णाति पूर्वमेवान्तरात्मनः ॥१३॥ अर्थ-जो धीरवीर पुरुष एकताको प्राप्त हुए आत्मा और शरीरादि परवस्तुको पृथक् २ करके अनुभव करते हैं वे सबसे पहिले अन्तरात्माकी अर्थात् मनकी चंचलताको. रोक लेते हैं ॥ १३ ॥
मनाशुद्ध्यैव शुद्धिः स्यादेहिनां नात्र संशयः।
वृथा तव्यतिरेकेण कायस्यैव कदर्थनम् ॥१४॥ अर्थ-निःसंदेह मनकी शुद्धिसे ही जीवोंकी शुद्धता होती है, मनकी शुद्धिके विना केवल कायको क्षीण करना वृथा है ॥ १४ ॥
ध्यानशुद्धिः भनाशुद्धिः करोत्येव न केवलम् । विच्छिनत्यपि निःशङ्कं कर्मजालानि देहिनाम् ॥ १५॥