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ज्ञानार्णवः ।
तथा फिर भी कहते है
यमादिषु कृताभ्यासो निःसंगो निर्ममो मुनिः । रागादिक्केशनिर्मुक्तं करोति स्ववशं मनः ॥ ३ ॥ अर्थ - जिसने यमादिकनं अभ्यास किया है, परिग्रह और ममता से रहित है ऐसा मुनिही अपने मनको रागादिकसे निर्मुक्त तथा अपने वशमें करता है || ३ || अब पूर्वाचार्योंकी उक्ति कहते हैं कि
अष्टावङ्गानि योगस्य यान्युक्तान्यार्यसूरिभिः । चित्तप्रसत्तिमार्गेण बीजं स्युस्तानि मुक्तये ॥ ४ ॥
. . अर्थ - योग जो आठ अंग पूर्वाचार्य ने कहे हैं वे चित्तकी प्रसन्नता के मार्ग से मुक्ति के लिये बीजभूत (कारण) होते हैं, अन्यप्रकारसे नहीं होते इस प्रकार पूर्वाचार्योंने कहा है ॥ ४ ॥
अङ्गान्यष्टावपि प्रायः प्रयोजनवशात्कचित् ।
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उक्तान्यत्रैव तान्युच्चैर्विदांकुर्वन्तु योगिनः ॥ ५ ॥
अर्थ - आचार्य महाराज कहते हैं कि ये आठों अंग भी प्रयोजनानुसार प्रायः इसी ग्रन्थ कहे गये है, उन्हें भलेप्रकार सबको जानना चाहिये ॥ ५ ॥ अब मनोरोधका वर्णन करते है
मनोरोधे भवेदुद्धं विश्वमेव शरीरिभिः । प्रायोsसंवृतचित्तानां शेषरोधोऽप्यपार्थकः ॥ ६॥
अर्थ – जिसने मनका रोध किया उसने सवही रोका, वश किया उसने सबको वश किया और जिसने अपने
उसका अन्य इन्द्रियादिकका रोकना व्यर्थ ही है ॥ ६ ॥
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अव मनके व्यापारका वर्णन करते हैं
अर्थात् जिसने अपने मनको मनको वशीभूत नहीं किया
कलङ्कविलयः साक्षान्मनः शुद्ध्यैव देहिनाम् । तस्मिन्नपि समीभूते स्वार्थसिद्धिरुदाहृता ॥ ७ ॥
अर्थ - मनकी शुद्धतासे ही साक्षात् कलंकका विलय होता है और जीवोंके उसका समभावस्वरूप होनेपर स्वार्थकी सिद्धि कही है। क्योंकि जब मन रागद्वेपरूप नहीं प्रवर्तता तब ही अपने स्वरूपमें लीन होता है, यही सार्थकी सिद्धि है ॥ ७ ॥ चित्तप्रपञ्चजाने कविकारप्रतिबन्धकाः ।
प्राशुवन्ति नरा नूनं मुक्तिकान्ताकरग्रहम् ॥ ८ ॥
अर्थ - जो पुरुष चित्तके प्रपंचसे उत्पन्न हुए अनेक प्रकार के विकारोंको रोकनेवाले
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