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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् · अर्थ-ये रागादिक . भाव मनको कभी तो मूढ करते हैं, कभी भ्रमरूप करते हैं, - कभी भयभीत करते हैं, कभी रोगोंसे चलायमान करते हैं, कभी शंकित करते हैं, कभी क्लेशरूप करते हैं । इत्यादि प्रकारसे स्थिरतासे डिगा देते हैं ।। ७ ॥
अजस्रं रुध्यमानेऽपि चिराभ्यासादृढीकृताः।
चरन्ति हृदि निःशङ्का नृणां रागादिराक्षसाः ॥८॥ अर्थ-मनुष्योंके निरन्तर वश किये हुए मनमें भी चिरकालसे अभ्यस्त किये रागादिक राक्षस निःशंक हो प्रवर्तते हैं । भावार्थ-रागादिकका संस्कार ऐसा प्रबल है कि एकाग्र मन करै तौ भी चलायमान कर देते हैं ॥८॥
प्रयासैः फल्गुभिर्मूढ किमात्मा दण्ड्यतेऽधिकम् । .
शक्यते न हि चेञ्चेतः कर्तुं रागादिवर्जितम् ॥९॥ अर्थ- हे मूढ प्राणी जो अपने चित्तको रागादिकसे रहित करनेको समर्थ नहीं तो व्यर्थ ही अन्य क्लेशोंसे आत्माको दंड क्यों देता है ? क्योंकि रागादिकके मिटे विना अन्य खेद करना निष्फल है ॥९॥
क्षीणरागं व्युतद्वेषं ध्वस्तमोहं सुसंवृतम् ।
यदि चेतः समापन्नं तदा सिद्धं समीहितम् ॥१०॥ अर्थ-क्षीण हुआ है राग जिसमें और च्युत हुआ है द्वेष जिसमें तथा नष्ट हुआ है मोह जिसमें ऐसा जो मन संवरताको प्राप्त है तो वांछित सिद्धि है। भावार्थचित्तमेंसे द्वेष और मोह तो नष्ट हों और रागादिक क्षीण हों तथा अपना खरूप साधने में राग रहै तो सर्व प्रकारके मनोवांछित सिद्ध होते हैं ॥ १०॥
मोहपके परिक्षीणे प्रशान्ते रागविभ्रमे ।
पश्यन्ति यमिनः स्वस्सिन्वरूपं परमात्मनः ॥११॥ अर्थ-मोहरूपी कर्मके क्षीण होनेपर तथा रागादिक परिणामोंके प्रशान्त होनेपर योगीगण अपनेमें ही परमात्माके खरूपको अवलोकन करते हैं वा अनुभव करते हैं ॥११॥
महाप्रशमसंग्रामे शिवश्रीसंगमोत्सुकैः। .
योगिभिज्ञानशस्त्रेण रागमल्लो निपातितः ॥१२॥ अर्थ-मुक्तिरूपी लक्ष्मीके संगकी वांछा करनेवाले योगीश्वरोंने महाप्रशमरूपी संग्राममें ज्ञानरूपी शस्त्रसे राग़रूपी मल्लको निपातन किया । क्योंकि इसके हते विना मोक्षलक्ष्मीकी प्राप्ति नहीं है ॥ १२ ॥
असंक्लिष्टमविभ्रान्तमविप्लुतमनाकुलम् । खवशं च मनः कृत्वा वस्तुतत्त्वं निरूपय ॥१३॥