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ज्ञानार्णवः।
२४१: अर्थ-हे आत्मन् ! अपने मनको संक्लेश, भ्रान्ति और रागादिक विकारोंसे रहित करके अपने मनको वशीभूत कर तथा वस्तुके यथार्थ स्वरूपको अवलोकन कर ॥ १३ ॥
रागाद्यमिहतं चेतः स्वतत्त्वविमुखं भवेत् । . .
ततः प्रच्यवते क्षिप्रं ज्ञानरत्नाद्रिमस्तकात् ॥ १४ ॥ . अर्थ-जो चित्त रागादिकसे पीड़ित होता है वह खतत्त्वसे विमुख हो जाता है इसी कारण ही मनुप्य ज्ञानरूपी रत्नमय पर्वतसे च्युत हो जाता है ॥ १४ ॥
रागद्वेपभ्रमाभावे मुक्तिमार्ग स्थिरीभवेत् ।
संयमी जन्मकान्तारसंक्रमक्लेशशङ्कितः ॥ १५ ॥ अर्थ-संसाररूपी भ्रमणके क्लेशोंसे भयभीत संयमी मुनि रागद्वेष मोहके अभाव होनेसे ही मोक्षमार्ग में स्थिर होता है। भावार्थ-रागद्वेपमोहके विद्यमान रहते मोक्षमार्गमें स्थिरता नहीं होती ॥ १५॥ . रागादिभिरविश्रान्तं वश्यमानं मुहुर्मनः ।
न पश्यति परं ज्योतिः पुण्यपापेन्धनानलम् ॥ १६॥ अर्थ-यह मन है सो रागादिकसे निरंतर वारंवार वंचित हुआ पुण्यपापरूपी इंध-. नको अग्निके समान ऐसी परमज्योतिको अवलोकन नहीं कर सकता । भावार्थ-जबतक मनमें रागद्वेष रहता है तबतक परमात्माका खरूप नहीं भासता. रागद्वेषमोहके नष्ट होनेपर ही शुभाशुभ कर्माको नष्ट करनेवाले परमात्माके खरूपकी प्राप्ति होती है ॥ १६ ॥ .
रागादिपकविश्लेषात्प्रसन्ने चित्तवारिणि ।
परिस्फुरति निःशेपं मुनर्वस्तुकदम्बकम् ॥ १७ ॥ अर्थ-रागद्वेपमोहरूपी कर्दमके अभावसे प्रसन्नचित्तरूपी जलमें मुनिको समस्त : वस्तुओंके समूह स्पष्ट स्फुरायमान होते हैं अर्थात् प्रतिभासते हैं ॥ १७ ॥
स कोऽपि परमानन्दो वीतरागस्य जायते ।
येन लोकत्रयैश्वर्यमप्यचिन्त्यं तृणायते ॥ १८॥ . अर्थ-तथा जो कोई एक परमानन्दवरूप वीतरागके उत्पन्न होता है उसके सामने तीन लोकका अचिन्त्य ऐश्वर्य भी तृणवत् भासता है । अर्थात् परमानंदस्वरूपके सामने तीन लोकका ऐश्वर्य भी कुछ नहीं है ॥ १८ ॥
प्रशाम्यति विरागस्य दुर्योधविषमग्रहः । स एव वर्द्धतेऽजस्रं रागार्तस्येह देहिनः ॥ १९ ॥