________________
ज्ञानार्णवः ।
२३५ अर्थ-मनकी शुद्धता केवल ध्यानकी शुद्धताको ही नहीं करती है किन्तु जीवोंके कर्मनालको (कर्मोके समूहको) भी निःसंदेह काटती है । भावार्थ-मनकी शुद्धतासे ध्यानकी निर्मलता भी होती है और कर्मोंकी निर्जरा भी होती है ॥ १५॥
पादपङ्कजसंलीनं तस्यैतद्भुवनत्रयम् । . यस्य चित्तं स्थिरीभूय स्वखरूपे लयं गतम् ॥ १६ ॥ अर्थ-जिस मुनिका मन स्थिर होकर आत्मखरूपमें लीन हो गया उसके चरणकमलोंमें यह तीनो जगत् भले प्रकार लीन हुए समझने चाहिये ॥ १६ ॥
मनः कृत्वाशु निःसङ्गं निःशेषविषयच्युतम् ।
मुनिभृङ्गैः समालीढं मुक्तेर्वदनपङ्कजम् ॥ १७॥ अर्थ-जिन मुनिरूपी भ्रमरोंने अपने मनको निःसंगतासे शीघ्र ही समस्तविषयोंसे छुड़ाया उन्होंने ही मुक्तिरूपी स्त्रीके मुखरूपी कमलको आलिंगन किया ॥ १७ ॥
यथा यथा मनःशुद्धिमुनेः साक्षात्मजायते। . तथा तथा विवेकश्रीहदि धत्ते स्थिरं पदम् ॥ १८ ॥ अर्थ-मुनिके जैसे २ मनकी शुद्धता साक्षात् होती जाय तैसे २ विवेक अर्थात् भेदज्ञानरूप लक्ष्मी अपने हृदयमें स्थिरपदको धारण करती है । भावार्थ-मनकी शुद्धतासे उत्तरोत्तर विवेक बढ़ता है ॥ १८ ॥
चित्तशुद्धिमनासाद्य मोक्तुं यः सम्यगिच्छति ।
मृगतृष्णातरङ्गिण्यां स पिवत्यम्बु केवलम् ॥ १९॥ अर्थ-जो पुरुष चित्तकी शुद्धताको न पाकर भले प्रकार मुक्त होना चाहता है वह / केवल मृगतृष्णाकी नदीमें जल पीता है । भावार्थ-मृगतृष्णामें जल कहांसे आया ? उसी प्रकार चित्तकी शुद्धताके विना मुक्ति कहांसे हो? ॥ १९ ॥
तद्ध्यानं तद्धि विज्ञानं तद्ध्येयं तत्त्वमेव वा ।
येनाविद्यामतिक्रम्य मनस्तत्त्वे स्थिरीभवेत् ॥ २० ॥ अर्थ-वही तो ध्यान है, वही विज्ञान है और वही ध्येय तत्त्व है कि जिसके प्रभावसे । । अविद्याको उल्लंघकर मन निजस्वरूपमें स्थिर हो जाय ॥ २० ॥
विपयग्रासलुब्धेन चित्तदैत्येन सर्वथा।
विक्रम्य स्वेच्छयाजस्रं जीवलोकः कर्थितः ॥२१॥. अर्थ-विषय ग्रहण करनेमें लुब्ध ऐसे इस चित्तरूपी दैत्यने (राक्षसने) सर्व प्रकार पराक्रम करके अपनी इच्छानुसार इस जगतको पीडित किया है ॥ २१॥ .
अवार्यविक्रमः सोऽयं चित्तदन्ती निवार्यताम् । . न यावडिंसयत्येष सत्संयमनिकेतनम् ॥ २२॥