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ज्ञानार्णवः। अर्थ-जिस मुनिने अपने चित्तको वश नहीं किया उसका तप; शास्त्राध्ययन, व्रत-/ धारण, ज्ञान, कायक्लेश इत्यादि सब तुपकंडनके समान निःसार (व्यर्थ ) हैं। क्योंकि मनके वशीभूत हुए विना ध्यानकी सिद्धि नहीं होती ॥ २८ ॥
एकैव हि मनःशुद्धिोकाग्रपथदीपिका।
स्खलितं बहुभिस्तत्र तामनासाद्य निर्मलाम् ॥ २९ ॥ . . अर्थ- मनकी शुद्धता ही एक मोक्षमार्गमें प्रकाश करनेवाली दीपिका (चिराग) है सो उसको निर्मल न पानेसे अनेक मोक्षमागी च्युत हो गये ॥ २९ ॥
असन्तोऽपि गुणाः सन्ति यस्यां सतां शरीरिणाम् ।
सन्तोऽपि यां विना यान्ति सा मनःशुद्धिः शस्यते ॥ ३० ॥ अर्थ-जिस मनकी शुद्धताके होते हुए अविद्यमान गुण भी विद्यमान हो जाते हैं और जिसके न होते विद्यमान गुण भी जाते हैं वही मनकी शुद्धि प्रशंसा करने योग्य है ॥ ३०॥
अपि लोकत्रयैश्वर्यं सर्वाक्षप्रीणनक्षमम् । ___ भजत्यचिन्त्यवीर्योऽयं चित्तदैत्यो निरङ्कुशः ॥ ३१ ॥
अर्थ-यह चित्तरूपी दैत्य अचिन्त्यपराक्रमी है सो निरंकुश हो कर समस्त इन्द्रियोंको तृप्त करनेमें समर्थ ऐसे तीन लोकके ऐश्वर्यको भोगता है। भावार्थ-जवतक यह मन रुकता नहीं तवतक अपने संकल्पोंमें यह इन्द्रकेसे सुख भोगता है जिससे कि अनेक कर्म बंधते हैं ॥ ३१ ॥
शमश्रुतयमोपेता जिताक्षाः शंसितव्रताः।
विदन्त्यनिर्जितवान्ताः स्वस्वरूपं न योगिनः॥ ३२॥ अर्थ-जो योगी शमभाव, शास्त्राध्ययन और यम नियमादिसे युक्त हैं और जिते-:, न्द्रिय है, तथा जिनके व्रत प्रशंसा करने योग्य हैं वे भी यदि मनको नहीं जीते हुए हों . तो अपने स्वरूपको नहीं जान सकते । भावार्थ-मनके जीते विना आत्माका अनुभव नहीं होता ॥ ३२॥
विलीनविपयं शान्तं निःसङ्गं त्यक्तविक्रियम् ।
स्वस्थं कृत्वा मनः प्राप्तं मुनिभिः पदमव्ययम् ॥ ३३ ॥ अर्थ-मुनिगणोंने अपने मनको विलीनविषय, शान्त, निःसंग (परिग्रहके ममत्वरहित), विकाररहित खस्थ करके ही अव्ययपदको (मोक्षपदको) पाया है । भावार्थजब मनको अन्य विकल्प व विकारोंसे रहित करके आत्मस्वरूपमें स्थिर करै तव ही मोक्षकी प्राप्ति होती है ॥ ३३ ॥