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ज्ञानार्णवः ।
२३१ अर्थ-अविद्यासे (मोहसे) उत्पन्न रागादिकरूपी विपके विकारसे व्यग्र चित्त होनसे यह आत्मा दुःखरूपी अमिसे जलतेहुए दुर्गम संसारमें पड़ता है ॥ २४ ॥
लोप्टेष्वपि यथोन्मत्तः स्वर्णवुद्ध्या प्रवर्तते । __ अर्थप्वनात्मभृतेपु स्वेच्छयाऽयं तथा भ्रमात् ॥ २५ ॥ अर्थ-जैसे धतूरा खाया उन्मत्त पुरुष पत्थरादिकमें सुवर्णबुद्धिसे प्रवृत्ति करता है उसी प्रकार यह आत्मा अज्ञानसे अपने स्वरूपसे भिन्न अन्य पदार्थों में वेच्छाचारम्प प्रवृत्ति करता है । भावार्थ-उनसे राग द्वेष मोह करता है ॥ २५ ॥
वासनाजनितान्येव सुखदुःखानि देहिनाम् ।
अनिष्टमपि येनायमिष्टमित्यभिमन्यते ॥२६॥ अर्थ-जीवोंके जो सुखदुःख हैं वे अनादि अविद्याकी वासनासे उत्पन्न हुए हैं इसी कारणही यह आत्मा अनिष्टको भी इष्ट मानता है। भावार्थ-संसारसम्बन्धी सुख दुःख हैं वे कर्मजनित होनेके कारण अनिष्टही हैं तथापि यह आत्मा उनको इष्ट मानता है ॥ २६ ॥
अविश्रान्तमसौ जीवो यथा कामार्थलालसः।।
विद्यतेऽत्र यदि खार्थे तथा किं न विमुच्यते ॥ २७ ॥ अर्थ-यह आत्मा जिस प्रकार काम और अर्थके लिये अविश्रान्त परिश्रम करता है उस प्रकार यदि अपने स्वार्थ अर्थात् मोक्ष वा मोक्षमार्गमें लालसासहित प्रवृत्ति कर तौ क्या यह कर्मोसे मुक्त न हो? अवश्यही हो ॥ २७ ॥
इसप्रकार इस त्रितत्त्वके प्रकरणमें तात्पर्य यह है कि इन तीन तत्त्वोंकी जो चेष्टा कही गई सो सब इस आत्माहीकी चेष्टा है और वे सब ध्यान करनेसे प्रगट होती है इस कारण आत्माके ध्यान करनेका विधान है । सो ऐसाही करना चाहिये । मिथ्याकल्पना किस लिये करनी ? । मिथ्यांकल्पनाओंसे कुछ लौकिक चमत्कार हो तो हो सक्ता है परन्तु उससे मोक्षका साधन नहीं होता । इस कारण ऐसा ध्यानही करना उत्तम है जिससे मोक्ष और सांसारिक अभ्युदय प्रगटै, इस प्रकार उपदेश है ।
कवित-घनाक्षरी। शिव काम विपतत्व ध्यान थापि अन्यमती, माने हम स्वर्ग मोक्ष साधै हैं विधानते। शिव कौन काम कौन विप कौन यह मर्म, जाने नाही याथातथ्य नमै ते अशानते ॥ जैनवानी स्याद्वाद वस्तुरूप सत्य कह, सय रूप आत्माके शक्तिव्यक्तिमानते। पुद्गलसंयोगते अनादि भूलि कर्मवशि, दवी शक्ति ध्यान खोले आपापर जानते ॥
इति श्रीशुभचन्द्राचार्यविरचिते ज्ञानार्णवे योगप्रदीपाधिकारे
त्रितत्त्ववर्णनं नाम एकविंशं प्रकरणम् ॥ २१ ॥