________________
२३०
रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् तदस्य कर्तु जगदंहिलीनं तिरोहिताऽऽस्ते सहजैव शक्तिः। प्रवोधितस्तां समभिव्यनक्ति प्रसह्य विज्ञानमयः प्रदीपः ॥ २० ॥ अर्थ-पूर्वोक्त आत्माकी सामर्थ्य इस जगतको अपने पदमें (प्रभाव) लीन करनेको खभावस्वरूपही है, परन्तु वह कर्मोंसे आच्छादित है । विज्ञानरूप उत्कृष्ट दीपकको प्रचलित करनेसे वह उस शक्तिको प्रगट (स्वानुभवगोचररूप) करता है । भावार्थआत्माकी शक्तिये सब खाभाविक हैं । सो अनादिकालसे कर्मोके द्वारा ढकी हुई हैं । ध्यानादिक करनेसे प्रगट होती हैं । सव नई उत्पन्न हुई दीखती हैं । सो ज्ञानरूपी दीपकके प्रकाश होनेपर प्रगट होती हैं । परकी की हुई वस्तुमें कोई भी शक्ति नहीं होती, अन्यनिमित्तसे उत्पन्न होनेपर जो अन्यसे हुई मानते हैं सो भ्रम है । वे पर्यायबुद्धि हैं। जब वस्तुका खरूप द्रव्यपर्यायवरूप जानै तब भ्रम नहीं रहता ॥ २०॥ अथवा अन्यपक्ष है कि
अयं त्रिजगतीमा विश्वज्ञोऽनन्तशक्तिमान् ।
नात्मानमपि जानाति स्वस्वरूपात्परिच्युतः ॥ २१ ॥ अर्थ—यह आत्मा तीन जगतको भर्ता (स्वामी) है, समस्त पदार्थोका ज्ञाता है, अनन्तशक्तिवाला है, परन्तु अनादिकालसे अपने खरूपसे च्युत होकर अपने आपको नहीं जानता । भावार्थ-यह अपनीही भूल है । अर्थात् कर्मके पक्षसे यह दूसरा अज्ञान पक्ष बताया गया है ॥२१॥
अनादिकालसम्भूतैः कलकैः कश्मलीकृतः।
स्वेच्छयार्थान्समादत्ते स्वतोऽत्यन्तविलक्षणान् ॥ २२ ॥ अर्थ—यह आत्मा अनादिसे उत्पन्न हुए कलंकोंसे मलिन किया हुआ अत्यन्त विलक्षण अपनेसे भिन्न पदार्थोको खेच्छासे ग्रहण करता है । भावार्थ-पदार्थोंमें रागद्वेष मोहसे अहंकार ममकार इष्ट अनिष्ट आदि बुद्धि करता है ॥ २२ ॥
दृग्वोधनयनः सोऽयमज्ञानतिमिराहतः।
जानन्नपि न जानाति पश्यन्नपि न पश्यति ॥२३॥ अर्थ यह आत्मा दर्शन ज्ञान नेत्रवाला है परन्तु अज्ञानरूपी अन्धकारसे व्याप्त हो रहा है इस कारण जानता हुआ भी नहीं जानता और देखता हुआ भी कुछ नहीं देखता ॥ २३ ॥
अविद्योद्भूतरागादिगरव्यग्रीकृताशयः। पतत्यनन्तदुःखाग्निप्रदीसे जन्मदुर्गमे ॥ २४ ॥