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ज्ञानार्णवः । है और जब यही आत्मा अन्तरंग तथा वाह्यतरूप द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावरूप सम्पद सामग्रीको प्राप्त होता है तब इसके सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सन्यक्चारित्रके अतिशयताकी प्राप्ति होती है । उसके साधनसे मोहका क्रमक्रमसे अभाव होनेपर शुक्लध्यान प्रगट होता है । उस शुक्लध्यानके प्रमावसे धातिया काँका नाश होनेपर अनन्तचतुष्टय प्रगट होता है, इस प्रकार आत्मा परमात्मा नाम पाता है और इसीको शिव वा शिवतत्त्व कहते हैं । यह शिवतत्त्वका स्वरूप कहा गया ॥ १० ॥
अत्र गरुडतत्त्वको कहते हैं, सो अन्यमती गरुडतत्त्वकी ऐसी कल्पना करते हैं किगरुडपक्षीका सा तो मुख, और दूसरे सब अंग मनुप्यके समान किन्तु दोनों तरफ घोंटओतक (गोड़ोंतक) लटकती हुई दोनों पांच और मुखमें (चोंचमें ) दो सोकी ठोड़ी (फण) उनमेंसे एक सर्प तौ मस्तकपर होकर पीठकी तरफ लटकता हुआ और दूसरा पेटकी तरफ लटकता हुआ तथा घोंटुओंके नीचे नीचे तो पृथिवीतत्त्वकी रचना और घोंटुओंसे उपरि नाभिपर्यन्त अप्तत्त्वकी (जलतत्त्वकी) रचना और उसके उपरि हृदयपर्यन्त अमितत्त्वकी रचना और उसके उपरि मुखमें पवनतत्त्वकी रचना, इसप्रकार आकाशतत्त्वम गरुडकी कल्पना करके ध्यान करते हैं और उसे समन्त उपद्रव मेटनेवाला कहते हैं । उसका खरूप संस्कृत गद्य (वचनिका) द्वारा आचार्य महाराज कहते हैं । उसमेंसे प्रथम पृथिवी तत्त्वका स्वरूप कहते हैं,
अविरलमरीचिमारीपुत्रपिञ्जरितभासुरतरशिरोमणिमण्डलीसहस्रमण्डितविकटतरफूत्कारमारुतपरंपरोल्पातप्रेहोलितकुलाचलसंमिलितशिखिशिखासन्तापद्रवत्काञ्चनकान्तिकपिशनिजकायकान्तिच्छटापटलजटिलितदिग्वलयक्षत्रियभुजङ्गपुङ्गवद्वितयपरिक्षिप्तक्षितिबीजवि. सृष्टप्रकटपविपनरपिनद्धसवनगिरिचतुरस्रमेदिनीमण्डलावलम्बनगजपतिपृष्ठप्रतिष्ठितपरिकलितकुलिशकरशचीप्रमुखविलासिनीशृङ्गारदर्शनोल्लसितलोचनसहस्रनीत्रिदशपतिमुद्रालंकृतसमस्तभुवनावलम्बिसु. नासीरपरिकलितजानुदय इति पृथ्वीतत्वम् ॥ ११ ॥ · अर्थ-प्रचुर अविच्छेदरूप किरणोंकी लताओंके समूहसे पीतवर्ण देदीप्यमान (चमकते हुए) मस्तकमणियोंकी मंडलीके सहस्रद्वारा मंडित, और अतिशय विकट निकलते हुए फूत्काररूप पवनकी परंपरा (पंक्तिरूप परिपाटी) के पड़नेसे द्रवते हुए सुवर्णकी कान्तिके समान कपिश (पीतरक्तताखरूप), अपने शरीरकी कान्तिकी छटाओंके पटलोंसे तद्रूप जटिलित किया है दिशाओंका वलय जिन्होंने ऐसे, दो विशेषणयुक्त क्षत्रिय जातिके १ अनन्तदर्शन, अनन्तज्ञान, अनन्तमुन्न और अनन्तवीर्य ।