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ज्ञानार्णवः।
२१५ जगहञ्चनचातुर्य विषयाणां न केवलम् ।
नरान्नरकपाताले नेतुमप्यतिकौशलम् ॥ १६॥ . अर्थ-इन विपयोंमें केवल जगतको ठगनेकी ही चतुराई नहीं है, किन्तु मनुप्योंको नरकके निन्नभागमें ( सातवें नरकमें ) ले जानेकी भी प्रवीणता है ॥ १६ ॥
निसर्गचपलैश्वित्रैविपयैर्वञ्चितं जगत् ।
प्रत्याशा निर्दयेष्वेषु कीदृशी पुण्यकर्मणाम् ॥ १७ ॥ अर्थ-स्वभावसे चंचल नानाप्रकारके इन विपयोंने जगत्को ठगा तो फिर इन नियस्वरूप विषयोंमें पवित्राचरणवालोंकी आशा ही कैसी ? । भावार्थ-निर्दय ठगकी पहिचान होनेपर भले पुरुप उनके पीछे नहीं लगते, अर्थात् पुण्यके उदयसे प्राप्त हुए हैं, . सो उनकी आगामी बांछा नहीं करते ॥ १७ ॥
वईते गृद्धिरश्रान्तं सन्तोपश्चापसर्पति ।
विवेको विलयं याति विषयैवैञ्चितात्मनाम् ॥ २८॥ अर्थ-जिनका आत्मा इन विषयोंसे ठगा गया है अर्थात् विषयोंमें मम हो गया है उनकी विपयेच्छा तो बढ़ जाती है और सन्तोप नष्ट हो जाता है तथा विवेक भी विलीन हो जाता है ॥ १८ ॥
विपस्य कालकूटस्य विपयाख्यस्य चान्तरम् ।
वदन्ति ज्ञाततत्त्वार्थी मेरुसर्पपयोरिव ॥ १९ ॥ अर्थ-वस्तुखरूपके जाननेवाले विद्वानोंने कालकूट, ( हालहल ) विष और विषयोंमें मेरु पर्वत और सरसोंके समान अन्तर कहा है। अर्थात् कालकूट विष तो सरसोंके समान छोटा है और विषयविष सुमेरुपर्वतके समान है ॥ १९॥
अनासादितनिवेदं विपर्याकुलीकृतम् ।
पतत्येव जगजन्मदुर्गे दुःखाग्निदीपिते ॥ २० ॥ अर्थ-इस जगतने कभी विरागताको नहीं पाया इसकारण इसे विषयोंने व्याकुल (दुःखी ) करदिया है और यह दुःखरूपी अग्निसे प्रज्वलित हुए इस संसाररूपी दुर्ग में (जेलखानेमें ) पड़ता है ॥ २० ॥
इन्द्रियाणि न गुप्तानि नाभ्यस्तश्चित्तनिर्जयः । न निर्वेदः कृतो मित्र नात्मा दुःखेन भावितः ॥ २१ ॥ एवमेवापवर्गाय प्रवृत्तैयानसाधने ।
स्वमेव वश्चितं सृढेलोकदयपथच्युतैः ॥ २२ ॥ अर्थ-हे मित्र ! अनेक मूर्ख ऐसे हैं कि-जिन्होंने इन्द्रियोंको कभी वश नहीं किया,