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ज्ञानार्णवः ।
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करो, क्योंकि पंडितोंने इन दोनोंके ( कपाय और इन्द्रियोंके ) निग्रह करनेकी त्रिधिका किसी क्रमसे विधान नहीं किया है कि पहले एकको जीतै फिर दूसरेको जीते ॥ ४ ॥ यदक्षविषयोद्भूतं दुःखमेव न तत्सुखम् ।
अनन्तजन्मसन्तानक्लेशसंपादकं यतः ॥ ५ ॥
अर्थ — इन्द्रियोंके विपयसेवनसे जो सुख हुआ है वह दुःख ही है । क्योंकि यह इन्द्रियजनित सुख अनन्त संसारकी संतति के क्लेशों को संपादन करनेका कारण है और विद्वानोंने दुःख तथा दुःखके कारणको एक ही कहा है ॥ ५ ॥ दुर्दमेन्द्रियमातङ्गान्शीलशाले नियन्त्रय ।
धीर विज्ञानपाशेन विकुर्वन्तो यदृच्छया ॥ ६ ॥
अर्थ- हे धीर वीर पुरुष ! स्वतन्त्रतासे विकारको करते हुए इन दुर्दम इन्द्रियरूपी हस्तियोंको शीलरूपी शालके वृक्षमें विज्ञानरूपी रस्सेसे दृढ़तासे बांध । क्योंकि शीलही अर्थात् ब्रह्मचर्य और विज्ञान ही इनके वश करनेका एक मात्र उपाय है || ६ || हृषीक भीमभोगीन्द्र क्रुद्धदर्पोपशान्तये । स्मरन्ति वीरनिर्दिष्टं योगिनः परमाक्षरम् ॥ ७ ॥
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अर्थ — इन्द्रियरूपी भयानक सर्पोंके क्रोधकी शान्तिके लिये योगीगण श्रीवर्द्धमान, तीर्थंकर भगवानके उपदेश किये हुए परमाक्षरको ( परमेष्ठीके नाममंत्रको ) स्मरण करते हैं । भावार्थ — परमेष्ठीका नामस्मरण करनेसे भी इन्द्रियरूपी सपका क्रोध शान्त
॥७॥
froar बोधपाशेन क्षिप्ता वैराग्यपञ्जरे ।
हृषीकहरयो येन स मुनीनां महेश्वरः ॥ ८ ॥
अर्थ – जिस मुनिने इन्द्रियरूपी बंदरोंको ज्ञानरूपी फांसिसे बांधकर वैराग्यके पींजरे में बंद कर दिया वह मुनि ही मुनियोंमें महेश्वर ( मुनीश्वर ) है ॥ ८ ॥
हृदि स्फुरति तस्योचैधिरत्नं सुनिर्मलम् । शीलशालो न यस्याक्षदन्तिभिः प्रविदारितः ॥ ९ ॥
अर्थ - जिस मुनिका शीलरूपी शाल ( हस्तिशाला ) वा वृक्ष इन्द्रियरूपी हस्तियोंने नहीं विदारा अर्थात् नहीं तोड़ा उस मुनिके हृदयमें ही अतिपवित्र बोधिरूपी रत्न उत्तमतासे स्फुरित ( प्रकाशित ) होता है ॥ ९ ॥
१ “क्षमावैराग्यपञ्जरे” इत्यपि पाठः ।
२ सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्ररूपी रत्नत्रय ।