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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम्
स्वसंवित्तिं समायाति यमिनां तत्त्वमुत्तमम् । आसमन्ताच्छमं नीते कषायविषमज्वरे ॥ ७७ ॥
अर्थ-संयमी मुनियोंके कषायरूपी विषमज्वरके सर्व प्रकारसे उपशमताको प्राप्त होनेपर उत्तम तत्त्व (परमात्माका खरूप) खसंवेदनताको प्राप्त होता है । भावार्थकषायों के मिटनेसे ही आत्मस्वरूपका अनुभव होता है || ७७ || इस प्रकार कपायोंका वर्णन किया ।
इति श्रीज्ञानार्णवे योगप्रदीपाधिकारे शुभचन्द्राचार्यविरचिते एकोनविंशं प्रकरणम् ॥ १९ ॥
२१२,
अथ विंशं प्रकरणम् ।
अब कहते हैं कि इन्द्रियोंके जीते विना, कषाय जीते नहीं जा सकते; इसकारण क्रोधादिक कषायोंके जीतनेके लिये प्रथम इन्द्रियोंको वशीभूत करना चाहिये
अजिताक्षः कषायाग्निं विनेतुं न प्रभुर्भवेत् ।
अतः क्रोधादिकं जेतुमक्षरोधः प्रशस्यते ॥ १ ॥
अर्थ – जिसने इन्द्रियोंको नहीं जीता वह कपायरूपी अग्निका निर्वाण करनेमें असमर्थ है; इसकारण क्रोधादिकको जीतनेकेलिये इन्द्रियोंके विपयका रोध करना प्रशंसनीय कहा जाता है ॥ १ ॥
विषयाशाभिभूतस्य विक्रियन्तेऽक्षदन्तिनः ।
पुनस्त एव दृश्यन्ते क्रोधादिगहनं श्रिताः ॥ २ ॥
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अर्थ - जो पुरुष इन्द्रियोंके विषयोंकी आशासे पीड़ित हैं, उनके इन्द्रियरूपी हस्ती ! विकारताको ( मदोन्मत्तताको ) प्राप्त हो जाते हैं. फिर वे ही पुरुष क्रोधादिक कपायोंकी गहनताको आश्रित हुए देखे जाते हैं ॥ २ ॥
इदमक्षकुलं धत्ते मदोद्रेकं यथा यथा ।
कषायदहनः पुंसां विसर्पति तथा तथा ॥ ३ ॥
अर्थ – इन्द्रियोंका समूह जैसे २ मदकी उत्कटताको धारण करते हैं तैसे २ पुरुषोंके कषायरूप अग्नि विस्तृत होती जाती है ॥ ३ ॥
वंशस्थ |
. . कषायवैरिव्रजनिर्जयं यमी करोतु पूर्व यदि संवृतेन्द्रियः । किलानयोर्निग्रहलक्षणो विधिर्न हि क्रमेणात्र बुधैर्विधीयते ॥ ४ ॥ अर्थ-संयमी मुनि यदि जितेन्द्रिय है तो पहिले कषायरूपी शत्रुओंके समूहका जय