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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् ___ अर्थ-कुटिलतामें चतुर ऐसे मलिनचित्त पापी ठग वगलेके ध्यानकीसी वृत्तिका ( क्रियाका ) आलम्बन कर इस जगतको ठगते रहते हैं। भावार्थ-बगलेकी वृत्ति लोकप्रसिद्ध है । बगला जलमें समस्त अंगोंको संकोचकर एक पांवसे खड़ा रहकर ध्यानमग्न हो जाता है । यदि मच्छियें उसे कमल-पुप्पवत् समझ उसके निकट आ जाती हैं तो तत्काल उन्हें उठाकर खा जाता है. इसी प्रकार मायावीकी वृत्ति होती है । ६७ ॥ इसप्रकार मायाकषायका वर्णन किया । अव लोभकपायका वर्णन करते हैं।
नयन्ति विफलं जन्म प्रयासैर्मृत्युगोचरैः।
वराका प्राणिनोऽजस्रं लोभादप्राप्तवाञ्छिताः ॥ ६८॥ अर्थ-पामर प्राणी निरंतर लोभकपायके वशीभूत होकर वांछित फलको नहीं पाते हुए मृत्युका सामना करनेवाले अनेक उपायोंको करके अपने जन्मको व्यर्थ ही नष्ट कर देते हैं। भावार्थ-यह प्राणी लोभसे ऐसे उपाय करता है कि जिनसे मरण होना भी संभव है; तथापि अपने मनोवांछित कार्यकी सिद्धिको प्राप्त नहीं होता और अपने जन्मको व्यर्थ ही खो बैठता है ॥ ६८ ॥
शाकेनापीच्छया जातु न भर्तुमुदरं क्षमाः।
लोभात्तथापि वाञ्छन्ति नराश्चक्रेश्वरश्रियम् ॥ ६९॥ अर्थ-अनेक मनुष्य यद्यपि अपनी इच्छासे शाकसे भी पेट भरनेको कभी समर्थ नहीं होते तथापि लोभके वशसे चक्रवर्तीकीसी सम्पदाको वांछते हैं। भावार्थ-लोभ ऐसा है कि जिस वस्तुकी प्राप्ति होनेकी योग्यता खप्नमें भी असंभव हो उसकी भी वांछा कराता है, और ऐसी निष्फल वांछा कराकर मनुष्यको दुर्गतिका पात्र बनाता है ॥ ६९ ॥
आर्या। खामिगुरुबन्धुवृद्धानवलावालांश्च जीर्णदीनादीन् । . व्यापाद्य विगतशङ्को लोभातॊ वित्तमादत्ते ॥७॥ __ अर्थ-इस लोभकषायसे पीड़ित हुआ पुरुष अपने मालिक, गुरु, बन्धु (हितैषी), वृद्ध, स्त्री, वालक, तथा क्षीण, दुर्वल, अनाथ, दीनादिकोंको भी निःशंकतासे मारकर धनको ग्रहण करता है, अर्थात् लोभ ऐसा अनर्थ कराता है ॥ ७० ॥
ये केचित्सिद्धान्ते दोषाः श्वभ्रस्य साधकाः प्रोक्ताः।
प्रभवन्ति निर्विचारं ते लोभादेव जन्तूनाम् ॥७१॥ अर्थ-नरकको ले जानेवाले जो जो दोष सिद्धान्तशास्त्रमें कहे गये हैं वे सव, जीवोंके निःशंकतया लोभसे ही प्रगट होते हैं । भावार्थ-लोभ पापका मूल है' यह लोकोक्ति जगत्प्रसिद्ध है, सो सर्वथा सत्य है. क्योंकि जितने अयोग्य कार्य हैं वे इस लोभसे खयमेव बन जाते हैं ॥ ७१ ॥