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ज्ञानार्णवः ।
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परन्तु खेद है कि वे मायाचारसहित रहते हैं. सो बड़े नीच हैं और निर्लज्ज हैं. ऐसा नहीं 'विचारते कि हम तपस्वी होकर जो मायाचार रक्खेंगे तो लोग हमें क्या कहेंगे ? ॥ ६१ ॥ मुक्तेरविष्टुतैश्वोक्ता गतिऋज्वी जिनेश्वरैः ।
तत्र मायाविनां स्थातुं न स्वप्नेऽप्यस्ति योग्यता ॥ अर्थ — वीतराग सर्वज्ञ भगवान्ने मुक्तिमार्गकी गति सरल कही है. जनोंके स्थिर रहनेकी योग्यता खममें भी नहीं है ॥ ६२ ॥
६२ ॥
इहाकीर्ति समादत्ते मृतो यात्येव दुर्गतिम् । मायाप्रपञ्चदोषेण जनोऽयं जिमिताशयः ॥ ६४ ॥
ant निःशल्य एव स्यात्सशल्यो व्रतघातकः । मायाशल्यं मतं साक्षात्सूरिभिर्भूरिभीतिदम् || ६३ ॥ अर्थ-व्रती तो निःशल्यही होता है । शल्यसहित तो व्रतका घातक होता है । और आचार्योंने मायाको साक्षात् - शल्य कहा है । क्योंकि माया अतिशय भयदायक है । भावार्थ- मायावीके अपने मायाचारके प्रगट होनेका भय बनाही रहता है, अतएव उसका (कपटीका ) व्रत सत्यार्थ नहीं होता ॥ ६३ ॥
उसमें मायावी
अर्थ — इस मायाप्रपंचके दोषसे यह कुटिलाशय मनुष्य इस लोकमें तो अपयशको प्राप्त होता है और मृत्यु होनेपर दुर्गतिमें ही जाता है ॥ ६४ ॥ छाद्यमानमपि प्रायः कुकर्म स्फुटति स्वयम् ।
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अलं मायाप्रपञ्चेन लोकद्वयविरोधिना ।। ६५ ।।
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अर्थ — कुकर्म ढकते हुए भी प्रायः अपने आप ही प्रगट हो जाता है; इसकारण दोनो लोकोंको बिगाडनेवाले इस मायाप्रपंचसे अलं ( बस ) है । भावार्थ - मायाचारसे निंद्य कार्य किया जाय और छिपाया जाय तो भी प्रगट हुए विना नहीं रहता । प्रगट होनेपर वह उभयलोकको विगाड़ता है; इस मायाचारीसे अलग रहना ही चाहिये ॥ ६५ ॥ क्क मायाचरणं हीनं क्व सन्मार्गपरिग्रहः ।
नापवर्गपथि भ्रातः संचरन्तीह वञ्चकाः ॥ ६६ ॥
अर्थ — मायारूप हीनाचरण तौ कहां ? और समीचीन मार्गका ग्रहण करना कहां ? इनमें बड़ी विषमता है. इसकारण आचार्य महाराज कहते हैं कि हे भाई ! मायावी ठग इस मोक्षमार्गमें कदापि नहीं विचर सकते ॥ ६६ ॥
बकवृत्तिं समालम्व्य वञ्चकैर्वञ्चितं जगत् । कौटिल्यकुशलैः पापैः प्रसन्नं कमलाशयैः ॥ ६७ ॥
१ माया, मिथ्या और निदान ये तीन शल्य हैं । 'निःशल्यो व्रती' ऐसा तत्त्वार्थसूत्रका विद्वान्त है।
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