________________
२०८
रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् अपमानकर कर्म येन दूरान्निषिध्यते ।
स उच्चैश्चेतसां मानः परः खपरघातकः ॥५६॥ अर्थ-जिससे अपमान करनेवाले कार्य दूरहीसे छोड़ दिये जाय वही उच्चाशयवालोंका प्रशस्त मान है । इसके अतिरिक्त जो अन्यमान हैं वे खपरके घातक अर्थात् अप्रशस्त हैं ।।
क मानो नाम संसारे जन्तुव्रजविडम्बके ।
यत्र प्राणी नृपो भूत्वा विष्ठामध्ये कृमिर्भवेत् ॥ ५७॥ अर्थ-जीवमात्रको विडंबना करनेवाले इस संसारमें मान नामका पदार्थ है ही क्या ? क्योंकि जिस संसारमें राजा भी मरकर तत्काल विष्ठामें क्रिमि आदि कीट हो जाता है । और प्रत्यक्षमें भी देखा जाता है कि जो आज राजगद्दीपर विराजमान है वही कल राज्यरहित होकर रंक हो जाता है ॥ ५७ ॥
जन्मभूमिरविद्यानामकीर्तेर्वासमन्दिरम् ।
पापपङ्कमहाग? निकृतिः कीर्तिता वुधैः ॥ ५८॥ इसप्रकार मानकषायका वर्णन किया । अव मायाकपायका वर्णन करते हैं,
अर्थ-मायाकषाय अविद्याकी भूमि है, अपयशका घर है और पापरूपी कर्दमका बड़ा भारी गड्डा है, इसप्रकार विद्वानोंने मायाका कीर्तन (कथन) किया है ।। ५८ ॥
अर्गलेवापवर्गस्य पद्वी श्वभ्रवेश्मनः ।
शीलशालवने वह्निर्मायेयमवगम्यताम् ॥ ५९॥ अर्थ-यह माया मोक्ष रोकनेको अर्गला है। क्योंकि जबतक मायाशल्य रहता है तबतक मोक्षमार्गका आचरण नहिं आता । और नरकरूपी घरमें प्रवेश करनेकी पदवी (द्वार) है । तथा शीलरूपी शालवृक्षके वनको दग्ध करनेके लिये अग्निसमान है । क्योंकि मायावीकी प्रकृति सदा दाहरूप रहा करती है ॥ ५९ ॥
कूटद्रव्यमिवासारं खप्नराज्यमिवाफलम् । . अनुष्ठानं मनुष्याणां मन्ये मायावलम्विनाम् ॥ ६॥ अर्थ-आचार्य महाराज कहते हैं कि मैं मायावलम्बी पुरुषोंके अनुष्ठान आचरणको कूटद्रव्यके समान (निर्माल्यद्रव्यके समान) असार समझता हूं । अथवा खममें राज्यप्राप्तिके .समान निष्फल समझता हूं । क्योंकि मायावान्का आचरण सत्यार्थ नहीं होता किंतु निफल होता है ॥ ६० ॥
लोकद्रयहित केचित्तपोभिः कर्तुमुद्यताः।
निकृत्या वर्तमानास्ते हन्त हीना न लजिताः ॥ ६१ ॥ अर्थ-कोई पुरुष तपद्वारा उभय लोकमें अपने हितसाधनार्थ उद्यमी तो हुए हैं