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ज्ञानार्णवः।
२०१ यः शमः प्राक्समभ्यस्तो विवेकज्ञानपूर्वकः।
तस्यैतेऽद्य परीक्षार्थ प्रत्यनीकाः समुत्थिताः ।। २७.॥ अर्थ-'जो ये दुर्वचन कहनेवाले वा वधवन्धनादि करनेवाले शत्रु उत्पन्न हुए हैं वे मानो मैने भेदज्ञानपूर्वक शमभावका अभ्यास किया है उसकी आज परीक्षा करनेकोही आए हैं, सो देखते हैं कि इसके शमभाव अब है कि नहीं' ऐसा विचार करना किंतु क्रोधरूप न होना ॥ २७ ॥
यदि प्रशममयोदा भित्वा रुष्यामि शत्रवे।
उपयोगः कदाऽस्य स्यात्तदा मे ज्ञानचक्षुषः ॥ २८॥ __ अर्थ-जो मैं प्रशमभावकी मर्यादाका उल्लंघन करके वधबंधादि करनेवाले शत्रुसे क्रोध करूंगा तो इस ज्ञानरूपी नेत्रका उपयोग कौनसे कालमें होगा ? अर्थात् यह ज्ञानाभ्यास ऐसेही कालके लिये किया था, सो अव शमभावसे रहनाही योग्य है । इसप्रकार विचारते हैं ॥ २८॥
अयत्नेनापि सैवेयं संजाता कर्मनिर्जरा ।
चित्रोपायर्ममानेन यत्कृता भत्स्ययातना ॥ २९ ॥ _ अर्थ-फिर मुनि महाराजं ऐसा विचार करते हैं कि इस शत्रुने मेरे अनेक प्रकारके उपायोंसे तिरस्कार करके जो तीव्र यातना (पीडा) करी इससे यह बड़ा भारी लाभ हुआ कि विना यत्न किये ही मेरे पापकौकी निर्जरा सहजहीमें होगई । यह उपकारही मानना, क्रोध क्यों करना ? ॥ २९॥
उक्तं च ग्रन्थान्तरे वंशस्थम् ।। "ममापि चेद्रोहमुपैति मानसं परेषु सद्या प्रतिकूलवर्तिषु । अपारसंसारपरायणात्मनां किमस्ति तेषां मम वा विशेषणम् ॥ १॥
अर्थ-जो प्रतिकूल (वर्तनेवाले उपसर्ग करनेवाले शत्रु) हैं उनमें मेरा मन तत्काल जो द्रोहको प्राप्त होता है तो इस अपारसंसारमें जिनका आत्मा तत्पर है उन शत्रुओंमें और मुझमें क्या भेद रहा? अर्थात् मैं उनसे भिन्न मोक्षार्थी कहलाताई सो उनसे मेरी समानताही हुई अर्थात् मैं भी उनके समान संसारमें भ्रमूंगा ॥ १ ॥".
अपारयन्बोधयितुं पृथग्जनानसत्प्रवृत्तेष्वपि नाऽसदाचरेत्। अशक्नुवन्पीतविषं चिकित्सितुं पिवेद्विषं कः स्वयमप्यवालिशः ॥३०॥
अर्थ-असमीचीन कार्योंमें प्रवर्त्तनेवाले अन्य पुरुषोंको उपदेश करके रोकनेको असमर्थ हो तो क्या वह पंडित पुरुष भी असदाचरण करने लग जाय? नहिं कदापि नहीं. जैसेकोई पुरुप विप पीजावे और उसकी चिकित्सा करनेमें वैद्य असमर्थ हो जाय तो ऐसा वैद्य पंडित
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