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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् हितही चाहते हैं अहित कदापि नहीं चाहते, इस वृत्तिसे ही रहनेसे मुक्तिकी सिद्धि होती है ॥ ३९ ॥
कृतैर्वान्यैः स्वयं जातैरुपसगैः कलङ्कितम् ।
येषां चेतः कदाचित्तैने प्रासाः खेष्टसम्पदः ॥४०॥ अर्थ-जिनका चित्त अन्यके किये उपसर्गसे तथा अचेतन पदार्थों से खयमेव प्राप्त हुए उपसर्ग वा परीषहसे कलंकित (दूषित) हुआ उन्होने अपने इष्टकार्यकी सम्पदाकी प्राप्ति कदापि नहीं की। भावार्थ-यह प्रसिद्ध है कि जो उपसर्ग वा परीपहोंके आनेपर मुनिमार्गसे च्युत होगये उनके कभी सिद्धि नहीं हुई ॥ ४० ॥
प्राकृताय न रुष्यन्ति कर्मणे निर्विवेकिनः ।
तस्मिन्नपि च क्रुध्यन्ति यस्तदेव चिकित्सति ॥४१॥ अर्थ-विवेकरहित अज्ञानी पुरुष पूर्व जन्ममें किये हुए कर्मोंके (पापोंके ) लिये रोष करते नहीं और जो पुरुष क्रोधके निमित्त मिलाकर उन पापकर्मोंकी निर्जरा कराता है अर्थात् वैद्यके समान चिकित्सा करता है उसके ऊपर क्रोध करता है सो यह किसी प्रकार भी युक्त नहीं है । क्योंकि अपने कर्मकी निर्जरा करावे वह तो वैद्यके समान उपकारी है । उसका तो उपकार ही मानना चाहिये । उसपर क्रोध करना बड़ी भारी भूल वा कृतनता है ।। ४१॥
या श्वभ्रान्मां समाकृष्य क्षिप्यत्यात्मानमस्तधीः। . वधवन्धनिमित्तेऽपि कस्तस्मै विप्रियं चरेत् ॥ ४२ ॥ अर्थ-जो कोई निर्बुद्धि वधवन्धादिक उपसर्गका निमित्त मिलाकर मुझे तो नरक जानेसे बचाता है अर्थात् पूर्व कर्मोंकी निर्जरी करानेका निमित्त बनता है और अपनेको नरकमें डालता है, उसके लिये कौन तुरा आचरण करै ? उसका तो उपकार मानना उचित है ॥ ४२ ॥
यस्यैव कर्मणो नाशाजन्मदाहः प्रशाम्यति ।
तचेद्भक्तिसमायातं सिद्धं तह्यद्य वांछितम् ॥ ४३॥ अर्थ-जिस कर्मके नाश होनेसे संसारका आताप नष्ट हो उस कर्मका उदय इसी कालमें भोगनेमें आगया तो यह वांछित कार्य सिद्ध हुआ ऐसा समझना चाहिये । क्योंकि कर्मका नाश तो करनाही था, सहजही उपसर्ग आनेसे और उसके सह लेने मात्रसे निर्जरा हुई तो यह वांछित सिद्धि क्यों न हुई ? ॥ ४३ ॥
अनन्तक्लेशसतार्चिाप्रदीसेयं भवाटवी। तत्रोत्पन्नन किं सह्यस्तदुत्थो व्यसनोत्करः ॥ ४४ ॥