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ज्ञानार्णवः ।
२०५ अर्थ-यह संसाररूपी अटवी है सो अनन्तप्रकारके क्लेशरूपी अग्निसे जलती है सो उसमें उत्पन्न होनेवाले जीव क्या उस संसाररूप वनमें उत्पन्न हुए दुःखोंके समूहको नहीं सहते हैं ? अर्थात् सहतेही हैं तब मैं जो उपसर्गजनित अल्प दुःखको सहलंगा तो फिर संसारके अनन्तदुःख नहीं होंगे ऐसा विचार करना चाहिये ॥ ४४ ॥
शार्दूलविक्रीडितम् । सम्यग्ज्ञानविवेकशून्यमनसः सिद्धान्तसूत्रद्विपो
निस्त्रिंशाः परलोकनष्टमतयो मोहानलोद्दीपिताः। दौर्जन्यादिकलङ्किता यदि नरा न स्युर्जगत्यां तदा ___ कस्मात्तीव्रतपोभिरुन्नतधियः कासन्ति मोक्षश्रियम् ॥ ४५ ॥ अर्थ-यदि इस जगतमें सम्यग्ज्ञान और विवेकसे शून्य चित्तवाले, सिद्धान्तशास्त्रके द्वेषी, निर्दय, परलोकको नहीं माननेवाले नास्तिक, मोहरूपी अमिसे जलनेवाले दुर्जनादि कलंकसे कलंकित मनुष्य नहीं होते तो उन्नतबुद्धिवाले मुनिगण तीत्र तपस्यादिक करके मोक्षरूप लक्ष्मीको क्यों चाहते ? । भावार्थ-उक्तप्रकारके दुष्ट पुरुष अनेक हैं, तप करनेसे वे उपसर्ग करेंगे, उस उपसर्गको जीतेंगे तवही हमें मोक्षकी सिद्धि होगी ऐसा विचार करकेही मानों मुनिगण मोक्षके अर्थ तीव्र तपस्या करते हैं ।। ४५ ॥ .
मालिनी। वयमिह परमात्मध्यानदत्तावधानाः
परिकलितपदार्थास्यक्तसंसारमार्गाः। यदि निकषपरीक्षा सुक्षमा नो तदानीं
भजति विफलभावं सर्वथैष प्रयासः॥४६॥ अर्थ-मुनिमहाराज विचार करते हैं कि-इस जगतमें हम परमात्माके ध्यानमें चित्त लगानेवाले हैं, पदार्थोके खरूपको जाननेवाले और संसारमार्गके त्यागी हैं । यदि हम ऐसे होकर भी उपसर्ग परीपहोंकी कसोटीसे परीक्षामें असमर्थ हो जावे अर्थात् इससमय जो हम अपने उपशम भावोंकी परीक्षा नहीं करें तो हमारा मुनिधर्मके धारण करनेका समस्त प्रयास व्यर्थ हो जाय-। क्योंकि जब उपसर्ग आनेपर शमभाव रहै तवहीं उपशम भावकी प्रशंसा होती है ॥ ४६॥
शिखरिणी। अहो कैश्चित्कर्मानुदयगतमानीय रभसा
दशेष निर्दूतं प्रबलतपसा जन्मचकितैः । स्वयं यद्यायांतं तदिह मुदमालम्ब्य मनसा
न किं सा धीरैरतुलसुखसिद्धे व्यवसितैः ॥ ४७ ॥