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ज्ञानार्णवः ।
१९५ तं साक्षानुभूय नित्यपरमानन्दाम्वुराशिं पुन- . - ये जन्मभ्रममुत्सृजन्ति सहसा धन्यास्तु ते दुर्लभाः॥ ३९ ॥ अर्थ-जो पुरुष अपने वचनोंसे केवल परमेष्ठीकी बहुत काल पर्यन्त लीला गुणानुवादका विस्तार करते हैं ऐसे अल्पमती संसारमें क्या प्रायः संख्यारहित देखनेमें नहीं आते? अर्थात् ऐसे जीव असंख्य हैं । परन्तु जो पुरुष नित्य परमानन्दके समुद्रको साक्षात् अनुभवगोचर करके संसारके भ्रमको तत्काल ही दूर करदेते हैं वे महाभाग्य इस पृथ्वीपर दुर्लभ हैं ॥ ३९ ॥
इसप्रकार रत्नत्रयका वर्णन किया। यहां तात्पर्य ऐसा है कि जो सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्रको निश्चय व्यवहाररूप भलेप्रकार जानकर अंगीकार करता है उसके ही मोक्षके कारण अपने खरूपके ध्यानकी सिद्धि होती है । अन्यमती अन्यथा अनेकप्रकारसे ध्यानका तथा ध्यानकी सामग्रीका खरूप स्थापन करते हैं। उनके किंचिन्मात्र लौकिक चमत्कारकी सिद्धि कदाचित् हो तो हो सकती है किन्तु मोक्षमार्ग वा मोक्षकी सिद्धि कदापि नहीं हो सकती ॥
दोहा । सम्यकदर्शन ज्ञान व्रत, शिवमग भाख्यो नाम । तीन भेद व्यवहारतें, निश्चय आतम राम ॥ रत्नत्रय धारे विना, आतमध्यान न सार। जे उमंगै नर करनको, वृथा खेद निरधार ॥
छप्पय । अंतर वाहर तत्त्व दोय परकार जु सोहै । उपादेय निजरूप जानि अन्तर अवरोहै ॥ वाहिर हेय विसारि धारि सरधा दृढ करनी।
दुहुँकी रीति अनेक वानि जिनकी मधि वरनी ॥ नय निश्चय अरु व्यवहार दो, पर्यय नय व्यवहार है । लखि द्रव्यदृष्टि निश्चय भले, चिन्मय निज यह सार है ।
दोहा।
चेतनके परिणाम निज, हे असंख्य श्रुत भाख ।
दृष्ट अल्प छद्मस्थके, शेप जिनेश्वर साख ॥ १९ ॥ इति श्रीज्ञानार्णवे योगप्रदीपाधिकारे शुभचन्द्राचार्यविरचिते रत्नत्रयवर्णनं नाम
__ अष्टादश प्रकरणम् ॥ १८ ॥