________________
१९६
रायचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम् अथ एकोनविंशं प्रकरणम् ।
आगे क्रोधादिक कषाय और इन्द्रियोंके विषय चारित्रके और ध्यानके घातक हैं; इस कारण उनका वर्णन करते हैं । तिनमेंसे प्रथम ही क्रोधकपायका वर्णन करते हैं:
सत्संयममहारामं यमप्रशमजीवितम् ।।
देहिनां निर्दहत्येव क्रोधवहिः समुत्थितः ॥१॥ अर्थ-जीवोंके यम, नियम तथा प्रशम ( शान्तभाव ) ही है जीवन जिसका ऐसे उत्कृष्ट संयमरूपी उपवन (वाग) को प्रज्वलित हुई क्रोधरूपी अग्नि भस्म कर देती है ॥ १॥
दृग्बोधादिगुणान_रत्नप्रचयसंचितम् ।
भाण्डागारं दहत्येव क्रोधवह्निः समुत्थितः॥२॥ अर्थ-तथा यह क्रोधरूपी अग्नि प्रगट होनेपर सम्यग्दर्शन ज्ञानादि अमूल्य रत्नोंके समूहोंके संचित किये गुणरूपी भंडारको भी दग्ध कर देती है ॥ २ ॥
संयमोत्तमपीयूषं सर्वाभिमतसिद्धिदम् ।
कषायविषसेकोऽयं निःसारीकुरुते क्षणात् ॥ ३ ॥ अर्थ-इस कषायरूपी विषका सिंचन करना सर्व मनोवांछित सिद्धिको देनेवाले संयमरूपी उत्तम अमृतको भी क्षणमात्रमें निःसार कर देता है ॥ ३ ॥
तपाश्रुतयमाधारं वृत्तविज्ञानवर्डितम् ।
भस्मीभवति रोषेण पुंसां धात्मकं वपुः ॥ ४ ॥ अर्थ-चारित्र और विशिष्ट ज्ञानसे बढ़ाया हुआ तथा तप, स्वाध्याय और संयमका आधार जो पुरुषोंका धर्मरूपी शरीर है सो क्रोधरूपी अग्निसे भस्म हो जाता है ॥ ४ ॥
अयं समुत्थितः क्रोधो धर्मसारं सुरक्षितम् ।
निर्दहत्येव निःश शुष्कारण्यमिवानलः ॥५॥ अर्थ-प्रगट हुआ यह क्रोध सूखे वनको अग्निके समान सुरक्षित धर्मरूपी सार कहिये जल अथवा धनको निःसंदेह दग्ध कर देता है ॥ ५॥
पूर्वमात्मानमेवासौ क्रोधान्धो दहति ध्रुवम् । __ पश्चादन्यन्न वा लोको विवेकविकलाशयः॥ ६॥
अर्थ-क्रोधसे अन्धा हुआ विवेकरहित यह लोक प्रथम तौ अपनेको निश्चय करके जला देता है, तत्पश्चात् दूसरोंको जलावै अथवा नहीं जलावै, पहिले अपने समीचीन परिणामोंका घात तो कर ही लेता है ॥ ६ ॥