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. ज्ञानार्णवः। वही उसके विज्ञानविशिष्ट ज्ञान है और वही सम्यक्चारित्र तथा सम्यग्दर्शन है, अन्य कुछ भी नहीं है ॥ २७ ॥
स्त्रज्ञानादेव मुक्तिः स्याजन्मवन्धस्ततोऽन्यथा।
एतदेव जिनोद्दिष्टं सर्वखं वन्धमोक्षयोः ॥ २८ ॥ अर्थ-आत्मज्ञानसे ही मोक्ष होता है, आत्मज्ञानके विना अन्यप्रकारसे संसारका वन्ध होता है, यही जिनेन्द्रभगवानका कहाहुआ वन्ध मोक्षका सर्वत्र है ॥ २८ ॥
आत्मैव मम विज्ञानं दृग्वृत्तं चेति निश्चयः।।
मत्तः सर्वेऽप्यमी भावा वाह्याः संयोगलक्षणाः ॥ २९ ।। अर्थ-मेरे आत्मा ही विज्ञान है, आत्मा ही दर्शन और चारित्र है ऐसा निश्चय है। इससे अन्य सब ही पदार्थ मुझसे वाह्य और संयोगखरूप हैं । इसप्रकार अनुभव करनेसे रत्नत्रयमें और आत्मामें कुछ भी भेद नहीं रहता ॥ २९॥
__ अयमात्मैव सिद्धात्मा खशक्त्याऽपेक्षया स्वयम् ।
व्यक्तीभवति सद्ध्यानवह्निनाऽत्यन्तसाधितः ॥ ३०॥ __ अर्थ-यह आत्मा संसारअवस्थामें भी अपनी शक्तिकी अपेक्षासे सिद्धखरूप है और समीचीन ध्यानरूपी अमिसे अत्यन्त साधनेसे व्यक्तरूप सिद्ध होता है । अर्थात् अष्टकर्मका नाश होनेपर सिद्धखरूप व्यक्त (प्रकट) होता है ॥ ३० ॥
एतदेव परं तत्त्वं ज्ञानमेतद्धि शाश्वतम् । - अतोऽन्यो यः श्रुतस्कन्धः स तदर्थं प्रपञ्चितः ॥३१॥ अर्थ-यह आत्माही परम तत्त्व है और यही शाश्वत ज्ञान है । अतएव अन्य श्रुतस्कन्ध द्वादशांग शास्त्ररूप रचना इस आत्माहीको जानने के लिये विस्तृत हुआ है ॥३१॥
अपास्य कल्पनाजालं चिदानन्दमये खयम् ।। __ यः खरूपे लयं प्राप्तः स स्याद्रत्नत्रयास्पदम् ।। ३२॥ 'अर्थ-जो मुनि कल्पनाके जालको दूर करके अपने चैतन्य और आनन्दमय खरूपमें लयको प्राप्त हो, वही निश्चय रत्नत्रयका स्थान ( पात्र ) होता है ॥ ३२॥
सुसेष्वक्षेषु जागर्ति पश्यत्यात्मानमात्मनि ।
वीतविश्वविकल्पोऽसौ सः खदर्शी बुधैर्मतः ॥ ३३ ॥ अर्थ-जो मुनि इन्द्रियोंके सोते हुए तो जागता है तथा आत्मामें ही आत्माको देखता है और समस्त विकल्पोंसे रहित है वही विद्वानोंकरके आत्मदर्शी माना गया है ॥३३॥
निःशेषक्लेशनिर्मुक्तममूर्त परमाक्षरम् । निष्प्रपञ्चं व्यतीताक्षं पश्य खं खात्मनि स्थितम् ॥ ३४ ॥