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- ज्ञानार्णवः । अर्थ-रागद्वेषसे अवलंवित समस्त संकल्पीको छोड़ कर जो मुनि अपने मनको खाधीन करता है और समताभावोंमें स्थिर करता है तथाः-सिद्धान्तके सूत्रकी रचनामें निरन्तर प्रेरणारूप करता है उस वुद्धिमान् मुनिके सम्पूर्ण मनोगुप्ती होती हैं ।
साधुसंवृतवाग्वृत्तमौनारुढस्य वा मुनेः।
संज्ञादिपरिहारेण वाग्गुप्तिः स्यान्महामुनेः ॥ १७ ॥ __ अर्थ-भले प्रकार संवररूप (वश) करी है वचनोंकी प्रवृत्ति जिसने ऐसे मुनिके तथा समस्यादिका त्याग कर मौनरूढ होनेवाले महामुनिके वचनगुप्ति होती है ॥ १७ ॥
स्थिरीकृतशरीरत्य पर्यङ्कसंस्थितस्य वा।
परीषप्रपातेऽपि कायगुप्तिमेता मुनेः ॥ १८॥ अर्थ-स्थिर किया है शरीर जिसने तथा परीपह आनाय तो भी अपने पर्यकासनसे ही स्थिर रहै, किंतु डिगै नहीं उस मुनिके ही कायगुप्ति मानी गई है अर्थात् कही गई है ॥१८॥
जनन्यो यमिनामष्टौ रत्नत्रयविशुद्धिदाः ।
एताभी रक्षितं दोषैर्मुनिवृन्दं न लिप्यते ॥ १९ ॥ अर्थ-पांच समिति और तीन गुप्ति ये आठों संयमी पुरुषोंकी रक्षा करनेवाली माता हैं तथा रत्नत्रयको विशुद्धता देनेवाली हैं. इनसे रक्षा किया हुआ मुनियोंका समूह दोषोंसे लिप्त नहीं होता ॥ १९ ॥ अब सम्यक्चारित्रके कथनको पूर्ण करते हुए कहते हैं:
मालिनी। इति कतिपयवर्णैश्चर्चितं चित्ररूपं
चरणमनघमुच्चैश्वेतसां शुद्धिधाम । अविदितपरमार्थर्यन्न साध्यं विपक्ष
स्तद्मिनुसरन्तु ज्ञानिनः शान्तदोपाः ॥२०॥ अर्थ-उक्त प्रकारसे कितने ही अक्षरोंद्वारा वर्णन किया जो अनेकरूप निर्दोष चारित्र सो अतिशय ऊंचे चित्तवालोंको तो शुद्धताका मंदिर है और नहीं जाना है परमार्थ जिन्होंने ऐसे विपक्षियोंद्वारा जो अंसाध्य है अर्थात् धारण नहीं किया जा सकता ऐसे इस चारित्रको शान्तदोषी ज्ञानी पुरुष धारण करो ऐसा उपदेश है ॥ २० ॥ ___ अब सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र-रूप रखत्रयके कथन (जो अबतक हुआ उसको) को पूर्ण करते हुए कहते हैं,
सम्यगेतत्समासाद्य त्रयं त्रिभुवनार्चितम् । द्रव्यक्षेत्रादिसामग्र्या भव्यः सपदि मुच्यते ॥ २१ ॥