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ज्ञानार्णवः। भेत्तुं शूलमसिं छेत्तुं कर्तितुं क्रकचं दृढम् ।
नरान्पीडयितुं यन्त्रं वेधसा विहिताः स्त्रियः ॥४४॥ अर्थ-आचार्य महाराज उत्प्रेक्षा करते हैं कि कहिये ब्रह्माने जो स्त्रियें बनाई हैं, वे मनुष्योंको वेधनेके लिये शूली, काटनेके लिये तरवार, कतरनेके लिये दृढ करोत (आरा), अथवा पेलनेके लिये मानों यंत्र ही बनाये हैं ॥ १४ ॥
विधुर्वधूभिमन्येऽहं नभस्थोऽपि प्रतारितः।
अन्यथा क्षीयते कस्मात्कलङ्काऽपहतप्रभः ॥४५॥ अर्थ-आचार्य महाराज फिरभी उत्प्रेक्षा करते हैं कि आकाशमें रहनेवाला यह चन्द्रमाभी स्त्रियोंसे वंचित किया गया है, अर्थात् मोहित किया गया है । क्योंकि यदि ऐसा न माना जाय तो यह कलंकसे प्रभारहित होकर प्रतिदिन क्षीण क्यों होता है। ॥ १५॥ आचार्य महाराज फिरभी उत्प्रेक्षा करते हैं
यद्रागं सन्ध्ययोद्धत्ते यद्भमत्यविलम्बितम् ।
तन्मन्ये वनितासाथै विप्रलब्धः खरद्युतिः॥४६॥ अर्थ-यह सूर्य जो दोनों सन्ध्याओंके समय ललाईको धारण करता है और निरन्तर भ्रमण करता रहता है सो मैं ऐसा मानता हूं कि यह भी स्त्रियोंके समूहोंसे ठगा गया है ॥ ४६॥ फिरभी उत्प्रेक्षा करते हैं
अन्तःशून्यो भृशं रौति वेलाव्याजेन वेपते।।
धीरोऽपि मथितो बद्धः स्त्रीनिमित्ते सरित्पतिः ॥४७॥ अर्थ-यह समुद्र स्त्रीके निमित्तही नारायणसे मथागया और रामचन्द्रजीसे बांधा गया इस कारण अन्तःशून्य होकर गर्जनाके बहानेसे (मिससे) तो रोता है और धीर होते हुए भी लहरोंके वहानेसे मानों कम्पायमान होता है ॥ ४७ ॥
सुरेन्द्रप्रतिमा धीरा अप्यचिन्त्यपराक्रमाः। । दशग्रीवादयो याताः कृते स्त्रीणां रसातलम् ॥४८॥ अर्थ-देखो, इन्द्रके समान धीर वीर अचिन्त्यपराक्रमी रावण आदिक बड़े २ छत्रधारी राजाभी स्त्रियोंके निमित्त रसातलको (नरकको) चले गये तो अन्य सामान्य जनोंकी तो कहनाही क्या ॥ १८॥
दुःखखानिरगाधेयं कलेमूलं भयस्य च । पापबीजं शुचां कन्दः श्वनभूमिनितम्बिनी ॥ ४९ ॥