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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । • अर्थ-इस लोकमें जीवोंके परिग्रहके प्राप्त होनेसे गुण तो अणुमात्रभी नहिं होते किन्तु दोष सुमेरु पर्वतसरीखे बड़े २ होते हैं, इसमें कुछ भी संदेह नहीं है. ॥ ९ ॥
अन्तर्बाह्यभुवोः शुद्ध्योर्योगायोगी विशुद्ध्यति ।।
नह्येकं पत्रमालम्ब्य व्योनि पत्री विसर्पति ॥१०॥ अर्थ-योगी बाह्याभ्यन्तर दोनोंप्रकारकी शुद्धियोंका योग होनेसे ही विशुद्ध होता है, किंतु एक प्रकारकी विशुद्धिसे ही नहीं होता. जैसे-पक्षी एक ही पंखके आलम्बनसे आकाशमें नहीं उड़सकता, किंतु दोनों पांखोंके होनेसे ही उड़ सकता है इसीप्रकार दोंनोप्रकारकी शुद्धि होनेसे ही मुनि निर्मल हो सकता है ।। १० ॥
साध्वीय स्थावहिःशुद्धिरन्तःशुध्यात्र देहिनाम् ।
फल्गुभावं भजत्येव बाह्या स्वाध्यात्मिकी विना ॥११॥ ' अर्थ-जीवोंके बाह्यकी शुद्धता अन्तरंगकी शुद्धतासे उत्तम होती है और फलदायक है ! क्योंकि, अन्तरंगकी आध्यात्मिकी शुद्धिके बिना बाह्यशुद्धि व्यर्थ ही रहती है । अर्थात्
संगात्कामस्ततः क्रोधस्तस्माद्धिंसा तयाऽशुभम् ।
तेन श्वाभ्री गतिस्तस्यां दुःखं वाचामगोचरम् ॥ १२॥ अर्थ-परिग्रहसे काम (वांछा) होता है, कामसे क्रोध, क्रोधसे हिंसा, हिंसासे पाप, और पापसे नरकगति होती है । उस नरकगतिमें वचनोंके अगोचर अतिदुःख होता है ! इसप्रकार दुःखका मूल परिग्रह है ॥ १२ ॥
संग एव मतः सूने निशेषानर्थमन्दिरं । __ येनासन्तोऽपि सूयन्ते रागाद्या रिपवः क्षणे ॥१३॥ ' अर्थ-सूत्रसिद्धान्तमें परिग्रह ही समस्त अनर्थोका मूल माना गया है। क्योंकि, जिसके होनेसे रागादिक शत्रु न हों तो भी क्षणमात्रमें उत्पन्न हो जाते हैं ॥ १३ ॥
रागादिविजयः सत्यं क्षमा शौचं वितृष्णता।
मुनेः प्रच्याव्यते नूनं संगैयामोहितात्मनः ॥ १४॥ अर्थ-परिग्रहोंसे मोहित मुनिके रागादिकोंका जीतना, सत्य, क्षमा शौच और तृष्णारहितपन आदि गुण नष्ट होजाते हैं ॥ १४ ॥
संगाः शरीरमासाद्य स्वीक्रियन्ते शरीरिभिः॥
तत्मागेव सुनिःसारं योगिभिः परिकीर्तितम् ॥ १५ ॥ अर्थ संसारी जीव शरीरको प्राप्त होकर ही परिग्रहोंको ग्रहण करते हैं, सो योगी महात्माओंने शरीरको पहिले ही निःसार कहदिया है ॥ १५ ॥