________________
१८४
रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् अथ सप्तदशं प्रकरणम् ।
आगे इस परिग्रहके वर्णनमें आशाके निषेधका वर्णन करते हैं,
बाह्यान्तर्भूतनिःशेषसंगसंन्याससिद्धये ।
आशां सद्भिनिराकृत्य नैराश्यमवलंव्यते ॥१॥ अर्थ-जो सत्पुरुष हैं वे वाह्याभ्यन्तरके समस्त परिग्रहोंके त्यागकी सिद्धिके लिये प्रथम ही आशाको छोड़कर निराशताका आलंबन करते हैं. क्योंकि, आशाके छूटनेसे ही परिग्रहका त्याग होता है ॥१॥
यावद्यावच्छरीराशा धनाशा वा विसर्पति ।
तावत्तावन्मनुष्याणां मोहग्रन्थिदृढीभवेत् ॥२॥ अर्थ-मनुष्योंके जैसे जैसे शरीर तथा धनमें आशा फैलती है तैसे २ उनके मोहकर्मको गांठ दृढ होती जाती है ।। २ ॥
अनिरुद्धा सती शश्वदाशा विश्वं प्रसर्पति ।।
ततो निवडमूलाऽसौ पुनश्छेत्तुं न शक्यते ॥३॥ अर्थ-इस आशाको रोका नहीं जाय तो यह निरन्तर समस्त लोकपर्यन्त विस्तरती रहती है और उससे इसका मूल दृढ होता जाता है फिर इसका काटना अशक्य हो जता है : इसकारण इसका रोकना श्रेष्ठ है ॥ ३॥
यद्याशा शान्तिमायाता तदा सिद्धं समीहितम् ।
अन्यथा भवसंभूतो दुःखवाधिदुरुत्तरः॥४॥ अर्थ-यदि आशा शान्तिको प्राप्त हो जाती है तो फिर उसी समय सर्व मनोवांछितकी सिद्धि होजाती है, यदि शान्त न हुई तो फिर संसारसे उत्पन्न हुआ दुःखरूपी समुद्र दुस्तर हो जाता है । भावार्थ-फिर संसारका दुःख नहिं मिटैगा ॥ ४ ॥
यमपशभराज्यस्य सद्बोधार्योदयस्य च।
विवेकस्यापि लोकानामाशैव प्रतिषेधिका ॥५॥ अर्थ-लोगोंके यम, नियम वा प्रशम भावोंके राज्यका तथा सम्यग्ज्ञानरूपी सूर्यके उदयका प्रतिषेध (निषेध) करनेवाली और विवेकको रोकनेवाली एक मात्र यह आशाही है. आशाके नष्ट होनेसेही सर्व सिद्धि है ॥ ५॥
आशामपि न सर्पन्तीं यःक्षणं रक्षितुं क्षमः। तस्यापवर्गसिद्ध्यर्थं वृथा मन्ये परिश्रमम् ॥ ६॥