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ज्ञानार्णवः।
१८५ अर्थ-आचार्य महाराज कहते हैं कि-जो पुरुप बढ़ती हुई आशाको क्षणभर भी रोकनेको असमर्थ है उसका मोक्षकी सिद्धिके लिये परिश्रम करना व्यर्थ है, ऐसा मै मानता हूं ॥ ६ ॥
आशैव मदिराऽक्षाणामाशैव विपमञ्जरी।
आशामूलानि दुःखानि प्रभवन्तीह देहिनाम् ॥७॥ अर्थ-संसारी जीवोंके आशा ही तो इन्द्रियोंकों उन्मत्त करनेवाली मदिरा है और आशा ही विषको बढ़ानेवाली मंजरी है तथा संसार में जितने दुःख होते हैं उनकी एकमात्र यह आशा ही मूलकारण है ॥ ७ ॥
त एव सुखिनो धीरा यैराशाराक्षसी हता।
महाव्यसनसंकीर्णश्चोत्तीर्णः क्लेशसागरः ॥ ८॥ अर्थ-जिन पुरुषोंने आशारूपी राक्षसीको नष्ट किया वे ही पुरुष धीर, वीर और सुखी हैं तथा वे ही अनेक आपदा वा कष्टोंके भरे हुए दुःखरूपी संसारसमुद्रसे पार हुए हैं ॥८॥
येषामाशा कृतस्तेषां मनःशुद्धिः शरीरिणाम् ।
अतो नैराश्यमालव्य शिवीभूता मनीषिणः ॥९॥ अर्थ-जिन पुरुषोंके आशा लगी है उनके मनकी शुद्धि कैसे हो, इसकारण जो वुद्धिमान् पुरुष हैं उन्होंने निराशताका अवलंबन करके ही अपना कल्याण साधन किया है। भावार्थ-जो जो निराश हुए उन्होंने ही अपना कल्याण किया है ॥ ९॥
सर्वाशां यो निराकृत्य नैराश्यमवलम्वते।
तस्य कचिदपि खान्तं संगपकन लिप्यते ॥१०॥ अर्थ-जो पुरुप समस्त आशाओंका निराकरण करके निराशाका अवलंबन करता है, उसका मन किसी कालमें भी परिग्रहरूपी कर्दमसे नहिं लिपता । भावार्थ-जो आशा छोड़े उसको परिग्रहरूपी मल काहेको लौ ॥ १० ॥
तस्य सत्यं श्रुतं वृत्तं विवेकस्तत्त्वनिश्चयः।
निर्ममत्वं च यस्याशापिशाची निधनं गता ॥११॥ अर्थ-जिस पुरुषके आशारूपी पिशाची नष्टताको प्राप्त हुई उसका ही शास्त्राध्ययन करना, चारित्र पालना, विवेक, तत्त्वोंका निश्चय और निर्ममता आदि सत्यार्थ (सच्चे) है वा सार्थक हैं ॥ ११॥
यावदाशानलश्चित्ते जाज्वलीति विशृङ्खलः। तावत्तव महादुःखदाहशान्तिः कुतस्तनी ॥१२॥
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