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ज्ञानार्णवः।
१८७ जिसकी आशा नष्ट हो गई वही पुरुप उभयलोककी विशुद्धताके लिये महापुरुषोंके द्वारा सेवा करनेयोग्य है । भावार्थ-आशारहित मुनिको बड़े २ सत्पुरुष सेवा करते हैं ॥ १८ ॥ __ आशा जन्मोग्रपङ्काय शिवायाशाविपर्ययः।
इति सम्यक्समालोच्य यद्वितं तत्समाचर ।। १९ ॥ अर्थ-आशा है सो संसाररूपी कर्दममें फँसानेवाली है और उसके विपर्यय अर्थात् आशाका अभाव मोक्षका करनेवाला है । अव तू इन दोनोंका भलेपकार विचार कर, जिसमें अपना हित समझे उसीका आचरण कर । यह उपदेश है ॥ १९ ॥
न स्थाद्विक्षिप्तचित्तानां खेष्टसिद्धिः कचिन्नृणाम् ।
कथं प्रक्षीणविक्षेपा भवन्त्याशाग्रहक्षताः ॥ २० ॥ अर्थ-जो आशारूपी पिशाचसे क्षत अर्थात् पीडित हैं वे विक्षिप्तचित्त हैं । सो जिनका चित्त विक्षिप्त है उन मनुष्योंकी इष्टसिद्धि कहीं भी नहीं है। उनकी विक्षिप्तता कैसे नष्ट होगी सो नहीं कहा जा सकता ॥ २०॥ अव इस प्रकरणको पूरा करते हुए कहते हैं,
मालिनी। विषयविपिनवीथीसंकटे पर्यटन्ती
झटिति घटितवृद्धिः कापि लब्धावकाशा। . अपि नियमिनरेन्द्रानाकुलत्वं नयन्ती ..: छलयति खलु कं वा नेयमाशापिशाची ॥२१॥
अर्थ-विषयरूपी वनकी गलियों में फिरती हुई, तत्काल घटती बढ़ती छिपती, जहां तहां खतन्त्र (बेरोकटोक) विचरनेवाली, संयमी मुनियोंको आकुलित करनेवाली यह आशारूपी पिशाची किस २ को नहिं छलती? । अर्थात् सवको छलती फिरती है ॥ २१ ॥ इसप्रकार अशापिशाचीका वर्णन किया
दोहा। आशा माता कर्मकी, आतमसों प्रतिकूल । - ' जेते घट वरतै यहै, ध्यान न शिवसुखमूल ॥ १७ ॥ इति श्रीज्ञानार्णवे शुभचन्द्राचार्यविरचिते योगप्रदीपाधिकारे आशापिशाचीवर्णनं
नाम सप्तदशं प्रकरणम् ॥ १७ ॥