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ज्ञानार्णवः ।
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तो बीज है तथा समस्त पापोंका मूल है और नरकनगरकी ध्वजा है । सो ऐसे अनर्थकारी धनको छोड़कर संतोषको अंगीकार कर जिससे संसारका फंद कटता है ॥ ४० ॥ शार्दूलविक्रीडितम् ।
एनः किं च धनप्रसक्तमनसां नासादि हिंसादिना कस्तस्यार्जनरक्षणक्षयकृतैर्नादाहि दुःखानलेः । तत्प्रागेव विचार्य वर्जय वरं व्यामूढ वित्तस्पृहां
येनैकास्पदतां न यासि विषयैः पापस्य तापस्य च ॥ ४१ ॥ अर्थ- हे व्यामूढ आत्मन् ! जिनका मन धनमें लवलीन है उन्होने क्या हिंसादिक कार्योंसे पापार्जन नहीं किया ? तथा उस धनके उपार्जन, रक्षण वा व्यय करनेसे दुःखरूपी अग्निसे कौन नहीं जला ? इस कारण पहिले ही विचार कर इस धनकी स्पृहाको (इच्छाको) छोड़; जिससे तू विषयोंसहित पाप तापकी एकताको प्राप्त न हो अर्थात् विषयों और पापतापोंका संगी न हो ॥ ४१ ॥
पुनश्च ।
एवं तावदहं लभेय विभवं रक्षेयमेवं ततस्तद्वृद्धिं गमयेयमेवमनिशं भुञ्जीय चैवं पुनः । द्रव्याशारसरुद्धमानस भृशं नात्मानमुत्पश्यसि क्रुद्ध्यत्क्रूरकृतान्तदन्तपदलीयन्त्रान्तरालस्थितम् || ४२ ।।
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अर्थ- हे आत्मन् ! धनकी आशारूपी रससे मन रुक जानेसे तू ऐसा विचारता है कि'प्रथम तो मैं धनोपार्जन कर सम्पदाको प्राप्त होऊंगा, फिर ऐसे उसकी रक्षा करूंगा, इस प्रकार उसकी वृद्धि करूंगा तथा अमुक प्रकारसे उसको भोग कर व्यय करूंगा' इत्यादि विचार करता रहता है; परन्तु क्रोधायमान यमके दांतोंकी दोनो पंक्तिरूपी चक्कीके बीचमें अपनेको आया हुआ नहीं देखता, सो यह तेरा बड़ा अज्ञान है ॥ ४२ ॥ इसप्रकार परिग्रहत्याग महात्रतके वर्णनमें परिग्रह दोष वर्णन किये ----
दोहा | सर्वपापको मूल यह, ग्रहण परिग्रह जानि ।
त्यागै सो मुनि ध्यानमें, थिरता पावै मानि ॥ १६ ॥
इति श्रीज्ञानार्णवे योगप्रदीपाधिकारे शुभचन्द्राचार्यविरचिते पोडशं प्रकरणम् ॥ १६ ॥