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ज्ञानार्णवः। हृषीकराक्षसानीकं कपायभुजगव्रजम् ।
वित्तामिषमुपादाय धत्ते कामप्युदीर्णतां ॥१६॥ अर्थ-इन्द्रियरूपी राक्षसोंकी सेना और कपायरूपी साँका समूह धनरूपी मांसको ग्रहण करके कोई ऐसी उत्कटता धारण करते हैं, जो कि चिन्तवनमें ही नहीं आती ॥ १६॥
उन्मूलयति निर्वेदविवेकद्रुममतरी।
प्रत्यासत्तिं समायातः सतामपि परिग्रहः ॥१७॥ अर्थ-यह परिग्रह निकट प्राप्त होनेपर सत्पुरुषोंके भी वैराग्य विवेकरूपी वृक्षकी मंजरियोंका उन्मूलन करदेता है ॥ १७ ॥
लुप्यते विषयव्यालेभिद्यते मारमार्गणैः।
रुध्यते वनिताव्याधैर्नरः सङ्गैरभिद्रुतः॥१८॥ अर्थ- यह मनुप्य परिग्रहोंसे पीडित होकर विषयरूपी साँसे तो काटा जाता है. कामके वाणोंसे चीरा जाता है और स्त्रीरूपी व्याधसे (शिकारीसे) रोका जाता है, अर्थात् बांधा जाता है ॥ १८॥
यः संगपङ्कनिर्मनोऽप्यपवर्गाय चेष्ठते ।
स मूढः पुष्पनाराचैविभिन्यात्रिदशाचलम् ॥ १९ ॥ अर्थ-जो प्राणी परिग्रहरूपी कीचड़में फँसा हुआ भी मोक्षप्राप्तिके लिये चेष्टा (उपाय) करता है; वह मूढ़ फूलोंके वाणसे मेरुपर्वतको तोड़ना चाहता है। भावार्थ-परिग्रह धारण करनेवालोंको मोक्षकी प्राप्ति होना असंभव है ॥ १९ ॥
अणुमात्रादपि ग्रन्थान्मोहग्रन्थिदृढीभवेत् ।
विसर्पति ततस्तृष्णा यस्यां विश्वं न शान्तये ॥२०॥ अर्थ-अणुमात्र परिग्रहके रखनेसे मोहकर्मकी ग्रन्थि (गांठ) दृढ होती है और इससे तृष्णाकी ऐसी वृद्धि होजाती है कि उसकी शान्तिके लिये समस्त लोकके राज्यसे भी पूरा नहीं पड़ता ॥ २० ॥
परीषहरिपुवातं तुच्छवृत्तैकभीतिदम् । ___ वीक्ष्य धैर्य विमुञ्चन्ति यतयः सङ्गसङ्गताः ॥ २१ ॥
अर्थ-परिग्रह रखनेवाले यती तुच्छवृत्तवालोंको भयके देनेवाले परिग्रहरूपी शत्रुओंके समूहको देखते ही धैर्यको छोड़ देते हैं. अर्थात् परिग्रही मुनि परीपहोंके आनेपर दृढ नहीं रहसकता, किंतु मार्गसे हट जाता है ॥ २१ ॥
सर्वसंगपरित्यागः कीर्त्यते श्रीजिनागमे । यस्तमेवान्यथा ब्रूते स हीनः खान्यघातकः ॥ २२ ॥