________________
१८०
रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम्
अर्थ — श्रीमज्जिनेन्द्रभगवान के परमागममें समस्त परिग्रहोंका त्याग ही महाव्रत कहा है । उसको जो कोई अन्यथा कहता है वह नीच है तथा अपना और दूसरोंका घातक है ॥ २२ ॥
यमप्रशमजं राज्यं तपः श्रुतपरिग्रहं ।
योगिनोsपि विमुञ्चन्ति वित्तवेतालपीडिताः ॥ २३ ॥
अर्थ- जो धनरूमी पिशाचसे पीडित हैं ऐसे योगी मुनि भी यम, नियम व शान्तभावोंसे उत्पन्न राज्यको तथा तप और शास्त्रस्वाध्यायादिके ग्रहणको छोड देते हैं ॥ २३ ॥ पुण्यानुष्ठानजातेषु निःशेषाभीष्टसिद्धिषु ।
कुर्वन्ति नियतं पुंसां प्रत्यूहं धनसंग्रहाः ॥ २४ ॥
अर्थ-धनका संग्रह पुरुषोंके पुण्यकार्यों से उत्पन्न हुई समस्त मनोवांछितकी देनेवाली सिद्धियोंमें विघ्न करता है ॥ २४ ॥
अत्यक्तसंगसन्तानो मोक्तमात्मानमुद्यतः ।
Traft जानाति खं धनैः कर्मबन्धनैः ॥ २५ ॥
न
अर्थ -- नहीं तजी है परिग्रहकी बासना जिसने ऐसा पुरुष अपनेको मुक्त करनेके लिये उद्यमी है, परन्तु अपना आत्मा परिग्रहके कारण कर्मोंके दृढबंधनों से बँधता है तो भी उसे नहीं जानता । क्योंकि, परिग्रहलोलुप प्रायः अंधेकी समान होता है ॥ २५ ॥
अपि सूर्यस्त्यजेद्धाम स्थिरत्वं वा सुराचलः ।
न पुनः संगसंकीर्णो मुनिः स्यात्संवृतेन्द्रियः ॥ २६ ॥
अर्थ - कदाचित् सूर्य तो अपना प्रकाश छोड़दे और सुमेरुपर्वत स्थिरता (अचलता) छोड़दे तो संभव है; परन्तु परिग्रहसहित मुनि कदापि जितेन्द्रिय नहीं हो सकता ॥ २६ ॥ बाह्यानपि च यः सङ्गान्परित्यक्तुमनीश्वरः ।
स क्लीबः कर्मणां सैन्यं कथमग्रे हनिष्यति ॥ २७ ॥
अर्थ - जो पुरुष बाह्य परिग्रहोंको छोड़ने में असमर्थ है वह नपुंसक ( नामर्द वा कायर) आगे कर्मोंकी सेनाको कैसे हनैगा ? ॥ २७ ॥
स्मरभोगीन्द्रवल्मीकं रागाद्यरिनिकेतनं ।
क्रीडास्पदमविद्यानां वुधैर्वित्तं प्रकीर्तितम् ॥ २८ ॥
अर्थ - विद्वानोंने (ज्ञानी पुरुषोंने ) धनको कामरूपी सर्पकी बांबी तथा रागादि दुश्मनोंके रहनेका घर और अविद्याओंके क्रीडा करनेका स्थानस्वरूप कहा है ॥ २८ ॥
अल्पे धनजम्बाले निमग्नो गुणवानपि ।
जगत्यस्मिन् जनः क्षिमं दोषलक्षैः कलङ्कयते ॥ २९ ॥