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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम्
छप्पय ।
कामको मैथुन निवारि तियछार निरंतर । मसंग साधन विसारि गुरु धारि सुअन्तर || rasfनका संग विपयआशा जु गिरावहु । ब्रह्मचर्यको पारि शुद्ध आतम लय लावहु ॥ इ ध्यान सिद्धिकर घाति हति केवलवोध उपायकै । संवोध्य भव्य सब कर्म हरि दुःख हरो शिव पायकै ॥
इति श्रीज्ञानार्णवे योगप्रदीपाधिकारे शुभचन्द्राचार्यविरचिते ब्रह्मचर्यमहाव्रतवर्णनं नाम पञ्चदशं प्रकरणम् ॥ १५ ॥
अथ षोडशं प्रकरणम् ।
अब परिग्रहत्याग महात्रतका वर्णन करते हैं; सो प्रथम ही परिग्रहके दोष दिखाते हैं. यानपात्रमिवाम्भोधौ गुणवानपि मज्जति ।
परिग्रहगुरुत्वेन संयमी जन्मसागरे ॥ १ ॥
अर्थ - जिसप्रकार नावमें पाषाणादिका बोझ बढ़नेसे गुणवान् अर्थात् रस्सीसे बँधी हुईभी नाव समुद्रमें डूब जाती है; उसीप्रकार संयमी मुनि यदि गुणवान् है तौभी परिग्रहके भारसे संसाररूपी सागरमें डूब जाता है ॥ १ ॥
बाह्यान्तर्भूतभेदेन द्विधा ते स्युः परिग्रहाः ।
चिचिद्रूपिणो बाह्या अन्तरङ्गास्तु चेतनाः ॥ २ ॥
अर्थ - वा अन्तरंग भेदसे परिग्रह दो प्रकारके हैं । बाह्य परिग्रह तो चेतन और अचेतन दो प्रकारके हैं और अन्तरंग परिग्रह केवल चेतनरूपही हैं। क्योंकि वे सव आत्माके परिणाम हैं ॥ २ ॥
दश ग्रन्धा मता बाह्या अन्तरङ्गाश्चतुर्दश ।
तान्मुक्त्वा भव निःसंगो भावशुद्ध्या भृशं मुने ॥ ३ ॥
अर्थ - चाहरके परिग्रह तौ दश हैं और अन्तरंगके परिग्रह चौदह हैं, सो हे सुने.. इन दोनों प्रकारके परिग्रहोंको छोड़ कर अत्यन्त निःसंग (निष्परिग्रहरूप ) होओ, यह उपदेश है ॥ ३ ॥
: वास्तु क्षेत्रं धनं धान्यं द्विपदाश्च चतुष्पदाः । शयनासनयानं च कुष्यं भाण्डममी दश ॥ ४ ॥