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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् तत्त्वको जान जान, चारित्रका अभ्यास कर कर, अपने खरूपको देख देख, और मोक्षके सुखार्थ पुरुषार्थ कर कर । इसप्रकार दोदोबार कहनेसे आचार्य महाराजने अत्यन्त प्रेरणा की है, क्यों कि श्रीगुरु महाराज बड़े दयालु हैं सो बारंवार हितके लिये प्रेरणा करते हैं ॥४२॥
अतुलसुखनिधानं ज्ञानविज्ञानबीज
विलयगतकलङ्क शान्तविश्वप्रचारम् । गलितसकलशक विश्वरूपं विशालं ।
भज विगतविकारं खात्मनात्मानमेव ॥४३॥ अर्थ-हे आत्मन् ! तू अपने आत्माको आपही कर भज अर्थात् सेव । तेरा आत्मा कैसा है कि अतुल्य (अतीन्द्रिय) सुखका निधान है, ज्ञान और विज्ञान (भेदज्ञान) का वीज है, जिसके मिथ्यात्वभावरूपी कलंक नष्ट होगये हैं, जिसमें नानाप्रकारके विकल्पोंका विस्तार शान्त हो गया है, अर्थात् जो निर्विकल्प खरूप है तथा जिसकी समस्त शंकायें नष्ट हो गई हैं, जो समस्त ज्ञेयोंके आकारखरूप विश्वमय है, विशाल है, अपने गुण पर्यायोंमें फैला हुआ है और समस्त प्रकारके विकारोंसे रहित होगया है । इस प्रकारके अपने आत्माको भजना, उसीमें लीन रहना, इसीको परम ब्रह्मचर्य कहते हैं। ब्रह्म कहिये आत्मामें चरना (लीन होना) सो ही ब्रह्मचर्य है ॥ १३ ॥
शार्दूलविक्रीडितम् । धन्यास्ते मुनिमण्डलस्य गुरुतां प्राप्ताः स्वयं योगिनः
'शुद्ध्यत्येव जगत्रयी शमवतां श्रीपादरागाङ्किता। .
तेषां संयमसिद्धयः सुकृतिनां खमेऽपि येषां मनो। : :. नालीढं विषयैर्न कामविशिखैनैवाङ्गनालोचनैः ॥४४॥ ___ अर्थ-जिन मुनियोंका मन विषयोंसे खममें भी आलीढ (विद्ध) नहीं हुआ और कामके बाण तथा स्त्रियोंके नेत्रकटाक्षोंसे स्पृष्ट नहिं हुआ वे ही सुकृती धन्य हैं । उनके ही संयमकी सिद्धियें होती हैं और वेही मुनि योगीश्वरोंके समूहमें प्रधानताको (आचार्यपदको) प्राप्त होते हैं तथा उन्ही शान्तभावयुक्त योगीश्वरोंके शोभायमान चरणोंके रागसे अङ्कित यह तीन भुवन निश्चय करके पवित्र होते हैं ॥ ४४॥
येषां वाग्भुवनोपकारचतुरा प्रज्ञा विवेकास्पदं
ध्यानं ध्वस्तसमस्तकर्मकवचं वृत्तं कलङ्कोज्झितम् । सम्यग्ज्ञानसुधातरङ्गनिचयैश्चेतश्च निर्वापितं
धन्यास्ते शमयन्त्वनङ्गविशिखव्यापारजाता रुजः ॥ ४५ ॥ अर्थ-जिन योगीश्वरोंके वंचन तो लोकोपकारमें चतुर हैं और प्रज्ञा (बुद्धि) विवेकका स्थान है और जिनके ध्यानने कर्मबन्धरूपी कवचको (बक्तरको) नष्ट करदिया है तथा