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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् उक्तं च ग्रन्थान्तरे।
आयो। नहि भवति निर्विगोपकमनुपासितगुरुकुलस्य विज्ञानम् ।
प्रकटितपश्चिमभागं पश्यत नृत्यं मयूरस्य ॥ ३४ ॥ अर्थ-जिसने गुरुकुलकी (सत्पुरुषोंके समूहकी) उपासना नहीं की, उसका विज्ञान (भेदज्ञान, कला, चतुराई) प्रशंसा करनेयोग्य नहीं है, किन्तु निंदासहित होता है। देखो! मयूर नृत्य करतेसमय अपना पृष्ठभाग (मलद्वार) उघाड़ कर नृत्य करता है ! भावार्थमयूर नाचता है सो अपनी बुद्धिसे नाचता है, नृत्य करनेका विधान सुंदर शृंगारसहित होता है, सो मयूरने किसीसे सीखा नहीं इसी कारण वह नाच करते समय अपने पृष्ठभागको (गुदाको) उघाड़ देता है; सो ऐसा नृत्य प्रशंसनीय नहिं होता । इसी प्रकार तपखी गुरु जनोंके निकट सीखे विना जो क्रिया की जाय वह यथावत् नहिं होती। इसकारण बड़े योगीश्वरादि महापुरुषोंकी संगतिमें रहकरही उनकी आज्ञानुसार प्रवर्तना चाहिये ॥ ३४ ॥
तपः कुर्वन्तु वा मा वा चेट्टद्धान्समुपासते।
तीत्वा व्यसनकान्तारं यान्ति पुण्यां गति नराः ॥ ३५॥ अर्थ-जो पुरुष सत्पुरुषोंकी उपासना (सेवा) करते हैं वे तप करें अथवा मत करें किंतु दुःखरूपी वनको पार करके अवश्यही पवित्र (उत्तम) गतिको प्राप्त होते हैं । भावार्थ-तप तो शक्त्यनुसार करना कहा है, यदि तप करनेकी शक्ति नहीं
और सत्पुरुषोंकी संगतिमें रहकर उनकी उपासना करता रहै तो उसको भी उत्तम गति प्राप्त हो ॥ ३५ ॥
कुर्वन्नपि तपस्तीनं विदन्नपि श्रुतार्णवम् ।
नासादयति कल्याणं चेदृद्धानवमन्यते ॥ ३६ ॥ __ अर्थ-तीव्र तप करता हुआ भी तथा शास्त्ररूपी समुद्रका अवगाहन करता हुआ भी यदि वृद्धसेवा नहीं करता है अर्थात् सत्पुरुषोंकी आज्ञामें नहिं रहता है तो उसका कदापि कल्याण नंहिं होसकता ॥ ३६॥
मनोऽभिमतनिःशेषफलसंपादनक्षमम् ।
कल्पवृक्षमिवोदारं साहचर्य महात्मनाम् ॥ ३७॥ अर्थ-महापुरुषोंका संग करना कल्पवृक्षकी समान समस्त प्रकारके मनोवांछित फलको देनेमें समर्थ है। अत एव सत्पुरुषोंकी संगति अवश्य करनी चाहिये ॥ ३७॥
जायते यत्समासाथ न हि खमेऽपि दुर्मतिः। .: 'मुक्तिबीजं तदेकं स्यादुपदेशाक्षरं सताम् ॥ ३८॥ अर्थ-सत्पुरुषोंके उपदेशका एक अक्षरही मुक्तिका वीज होता है । क्यों कि सदुप