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ज्ञानार्णवः ।
१७१ अर्थ-संयमी मुनि योगीश्वरोंके महापवित्र आचरणके अनुष्ठानको देखकर वा सुनकर उन योगीश्वरोंकी सेईहुई पदवीको निरुपद्रव प्राप्त करता है । भावार्थ-जब बड़ोंका बड़ा पवित्र आचरण देखै, सुनै तब आपभी वैसा होनेका यत्न करता है ॥ २८ ॥
विश्वविद्यासु चातुर्य विनयेष्वतिकौशलम् ।
भावशुद्धिः खसिद्धान्ते सत्संगादेव देहिनाम् ॥ २९ ॥ अर्थ-जीवोंको समस्त विद्याओंमें चतुरता और विनयमें अतिप्रवीणता तथा अपने सिद्धान्तमें भावोंकी शुद्धि अर्थात् निःसंदेहता आदि गुण सत्पुरुषोंकी संगतिसे ही प्राप्त होते हैं ॥ २९॥
यथात्र शुद्धिमाधत्ते वर्णमत्यन्तमग्निना ।
मनासिद्धिं तथा ध्यानी योगी संसर्गवह्निना ॥ ३० ॥ अर्थ-जैसे इस जगतमें सुवर्ण अमिके संयोगसे अत्यन्त शुद्ध (निर्मल) हो जाता है उसीप्रकार योगीश्वरोंकी संगतिरूपी अग्निसे ध्यानी मुनि अपने मनकी शुद्धिको प्राप्त होता है ॥३०॥
भयलजाभिमानेन धैर्यमेवावलम्बते ।
साहचर्य समासाद्य संयमी पुण्यकर्मणाम् ॥ ३१ ॥ अर्थ-संयमी मुनि पवित्राचरणवाले सत्पुरुषोंकी संगतिको प्राप्त हो, उनके भयसे वा लज्जा तथा अभिमानसे धैर्यका ही अवलंबन करता है । भावार्थ-कर्मोंके उदयसे परिणाम बिगड़ने लग जाय तो महापुरुषोंकी संगतिमें रहनेसे भय, लज्जा वा अपने अभिमानसे ही वह मुनि मार्गसे च्युत नहिं होता । इसीकारणही सत्पुरुषों में रहना अतिशय श्रेष्ठ है॥३१॥
शरीराहारसंसारकामभोगेष्वपि स्फुटम् । . विरज्यति नरः क्षिप्रं सद्भिः सूत्रे प्रतिष्ठितः ॥ ३२ ॥ ' अर्थ-सत्पुरुषों के द्वारा सूत्रमें शिक्षित किया हुआ पुरुष शरीर, आहार, संसार, काम, व भोगादिकमें तत्काल ही विरक्त हो जाता है । सत्पुरुषोंकी शिक्षाका ही फल ऐसा होता है, शरीरादिकमें वैराग्य होनेके कारण मोक्षमार्गसे च्युत नहिं होता । यह स्पष्टतया जानो ॥ ३२॥ . यथा यथा मुनिर्धत्ते चेतः सत्संगवासितम्।
तथा तथा तपोलक्ष्मीः परां प्रीति प्रकाशयेत् ॥ ३३ ॥ अर्थ-जैसे जैसे मुनि अपने चित्तको सत्पुरुषोंकी संगतिमें लगाता है तैसे तैसे ही उससे तपरूपी लक्ष्मी उत्तम प्रीतिको प्रकाश करती है ॥ ३३ ॥ .