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ज्ञानार्णवः । अनुपास्यैव यो वृद्धमण्डली मन्दविक्रमः। ___ जगत्तत्वस्थितिं वेत्ति स मिमीते नभः करैः ॥१६॥
अर्थ-जो पुरुष अल्पशक्तिवाला है और सत्पुरुषोंकी मंडलीमें रहे विनाही जगत्के तत्त्वखरूपकी अवस्थाको जानना चाहता है, वह आकाशको हाथोंसे मापता है। भावार्थ-सत्पुरुषोंकी सेवाके विना अल्प शक्तिवालेको जगतकी रीतिनीतिका ज्ञान नहिं हो सकता ॥ १६॥ .
शीतांशुरश्मिसंपर्कादिसर्पति यथाम्बुधिः।
तथा सदृत्तसंसर्गान्नृणां प्रज्ञापयोनिधिः ॥ १७॥ अर्थ-जिस प्रकार चन्द्रमाकी किरणोंसे समुद्र बढ़ता है उसी प्रकार सेमीचीन वृत्तोंके धारण करनेवाले सत्पुरुषोंकी संगतिसे मनुष्योंका प्रज्ञारूपी समुद्र वढ़ता है ॥१७॥
नैराश्यमनुबन्नाति विध्याप्याशाहविर्भुजं ।
आसाद्य यमिनां योगी वाक्पथातीतसंयमम् ॥१८॥ अर्थ-योगी (मुनि) संयमी पुरुषोंके महान् वचनमार्गसे अगोचर संयमको प्राप्त हो, आशारूप अमिको वुझाकर निराशाका अवलंबन करता है। भावार्थ-संयमी मुनियोंकी संगतिसे आशा नष्ट होकर चित्त शान्तिको प्राप्त होता है ॥ १८ ॥
वृद्धानुजीविनामेव स्युश्चारित्रादिसम्पदः ।।
भवत्यपि च निलेपं मनः क्रोधादिकश्मलम् ॥ १९ ।। . अर्थ-वृद्धों (सत्पुरुषों की सेवा करनेवाले पुरुषोंके ही चारित्र आदि सम्पदा होती . हैं और क्रोधादि कषायोंसे मैला मन निर्लेप (निर्मल) हो जाता है ॥ १९ ॥
सुलभेष्वपि भोगेषु नृणां तृष्णा निवर्तते। - सत्संसर्गसुधास्यन्दैः शश्वदाीकृतात्मनाम् ॥ २० ॥ . __ अर्थ-जिनका आत्मा सत्पुरुषोंके संसर्गरूपी अमृतके झरनेसे आर्द्र (भीजाहुआ गीला) रहता है उन पुरुषोंके ही भोग सुलभ होते हैं और उनके ही उन प्राप्त हुए भोगोंमें सृष्णाकी निवृत्ति (निस्पृहता) होती है ॥ २० ॥
कातरत्वं परित्यज्य धैर्यमेवावलम्बते ।
सत्संगजपरिज्ञानरञ्जितात्मा जनः स्वयम् ॥२१॥ • अर्थ-सस्पुरुषोंकी संगतिसे उत्पन्न हुए ज्ञानसे रंजायमान हो गया है 'आत्मा जिसका ऐसा पुरुष अपने आपही कायरताको छोड़ धैर्यावलंबन करता है । भावार्थसत्पुरुषोंकी संगतिसे ज्ञान होता है और कायरता नष्ट होकर धीरता आती है. कष्ट आनेपर पुरुष समीचीन मार्गसे च्युत नहि होता ।। २१ ।।
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