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ज्ञानार्णवः ।
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जाननेवाला जिनका ज्ञान है ऐसे ज्ञानीही वृद्ध कहाते हैं केवल अवस्थासेही वृद्ध नहिं होते ॥ ४ ॥
तपःश्रुतधृतिध्यानविवेकयमसंयमैः ।
ये वृद्धास्तेऽत्र शस्यन्ते न पुनः पलिताङ्कुरैः ॥ ५ ॥
अर्थ - जो मुनि तप शास्त्राध्ययन, धैर्य, ध्यान, विवेक ( भेदज्ञान ), यम, तथा संयमादिकसे वृद्ध (बढ़े हुए ) अर्थात् बड़े हैं वेही वृद्ध होते हैं। केवल अवस्था ( उमर ) मात्र अधिक होनेसे वा केश सफेद होनेसेही वृद्ध नहिं होते ॥ ५ ॥
प्रत्यासत्तिं समायातैर्विषयैः स्वान्तरञ्जकैः ।
न धैर्य स्खलितं येषां ते वृद्धा विबुधैर्मताः ॥ ६ ॥
अर्थ - जिनके निकट मनको रंजन करनेवाले विषयोंके प्राप्त होनेपरभी चित्तसे धीरता स्खलित ( नष्ट ) नहिं होती उनकोही विद्वानोंने वृद्ध माना है, अर्थात् विषयोंसे 'चलायमान होजांय वे बड़े काहेके ? ॥ ६ ॥
न हि मेsपि संयाता येषां सद्वृत्तवाच्यता । यौवनेऽपि मता वृद्धास्ते धन्याः शीलशालिभिः ॥ ७ ॥ अर्थ- जिनके सदाचरण स्वप्नमेंभी कभी कलंकित (मैले) नहिं हुए वे यौवनावस्थामेंभी वृद्ध हैं और वेही धन्य पुरुष हैं ऐसा ब्रह्मचारी महात्माओंने माना है || ७ || यहां विशेष कहते हैं,
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प्रायः शरीरशैथिल्यात्स्यात्वस्था मतिरङ्गिनाम् । यौवने तु कचित्कुर्यादृष्टतत्वोऽपि विक्रियाम् ॥ ८ ॥
अर्थ -- यद्यपि शरीरके शिथिल होनेसे ( वृद्धावस्था होनेसे ) जीवोंकी बुद्धिभी स्वस्थ ( निश्चित ) होजाती है परन्तु यौवनावस्था में तौ जिसने तत्त्वोंका स्वरूप जाना है वहमी कुछ विक्रियाको धारण करता है । भावार्थ - युवावस्था में जो चलायमान नहिं होते वेही धन्य पुरुष हैं ॥ ८ ॥
वार्द्धकयेन वपुर्धन्ते शैथिल्यं च यथा यथा ।
तथा तथा मनुष्याणां विषयाशा निवर्तते ॥ ९ ॥
अर्थ – वृद्धावस्थासे मनुष्योंका शरीर जैसे जैसे शिथिलताको धारण करता है तैसे तैसे ही विषयोंकी आशा घटती है. परन्तु युवावस्थामें जिनके आशाका नाश हो यही अधिकता है || हीनाचरणसंभ्रान्तो वृद्धोऽपि तरुणायते ।
तरुणोsपि सतां धन्ते श्रियं सत्संगवासितः ॥ १० ॥