________________
ज्ञानार्णवः ।
१७९
जिनका चारित्र कलंकरहित (निर्मल) है, व जिनका चित्त सम्यग्ज्ञानरूपी अमृतकी तरंगों के समूहसे शान्त होगया है वेही योगी मुनि धन्य हैं । वेही हमारे कामवाणके व्यापारसे उत्पन्न हुई पीडाका शमन करो ॥ ४५ ॥
चञ्चद्भिरिमप्पनङ्गपरशुप्रख्यैर्वधूलोचने
येषामिष्टफलप्रदः कृतधियां नाच्छेदि शीलद्रुमः । धन्यास्ते शमयन्तु सन्ततमिल दुर्वारका मानलज्वालाजालकरालयानसमिदं विश्वं विवेकाम्बुभिः ॥ ४६ ॥
अर्थ - जिन मुनियोंका इष्ट फलका देनेवाला शीलरूपी वृक्ष चंचल तथा चमकते हुए काम कुठारसमान स्त्रियोंके नेत्रोंसे चिरकालसे नहिं छेदा गया वे महाभाग्य कृतबुद्धि धन्य हैं । वे मुनिमहाराज निरन्तर प्राप्त होनेवाली दुर्निवार कामरूपी अग्निकी ज्वालाओंके समूहसे जलते हुए इस जगतको विवेकरूपी किरणोंसे शीतल करो ॥ ४६ ॥ यदि विषयपिशाची निर्गता देहगेहात् सपदि यदि विशीणों मोहनिद्रातिरेकः । यदि युवतिकर निर्ममत्वं प्रपन्नो
झगति ननु विधेहि ब्रह्मवीथी विहारम् ॥ ४७ ॥
अर्थ - हे आत्मन्! जो तेरे देहरूपी घरसे विषयरूपी पिशाची निकलगई हो, तथा मोहरूप निद्राकी तीव्रता क्षीण हो गई हो, और स्त्रीके शरीर में तू निर्ममत्व (निस्पृहता) को प्राप्त हुआ हो तो तू शीघ्री ब्रह्मचर्यरूपी गली में विहार कर (शेर कर) । अर्थात् उक्तप्रकारका होगया है तो ब्रह्मचर्य अंगीकार करनेमें ढील मत कर, ऐसा उपदेश है ॥ ४७ ॥ सारभोगीन्द्रदुर्वारविषानलकरालितम् ।
जगद्यैः शान्तिमानीतं ते जिनाः सन्तु शान्तये ॥ ४८ ॥
अर्थ- कामरूपी सर्पके दुर्निवार विषरूपी अनिकी ज्वालासे प्रज्वलित इस जगतको जिन महात्माओंने शान्तरूप किया, ऐसे सोलहवें तीर्थंकर शान्तिनाथ भगवान् जगतको शान्तरूप करनेवाले हों ऐसा आशीर्वाद दिया है ॥ ४८ ॥
इसप्रकार ब्रह्मचर्यनामा महाव्रतका वर्णन किया । जिसमें कामका प्रकोप, मैथुन, स्त्रीका स्वरूप, और संसर्ग इनका वर्णन किया, सो इनका त्याग करके जब मुनिमहाराजों के निकट रहै और उनकी सेवा करे तंत्रही ब्रह्मचर्य दृढ रहे और तवहीं परमार्थरूप ब्रह्मचर्य (आत्मामें लीन होनेरूप ध्यान) की सिद्धि होती है । इस कारण इस व्रतका वर्णन कुछ विस्तारसे किया है । यहां बारंबार कहने में पुनरुक्ति दोष न समझना, किंतु अतिस्पष्टता जाननी ।