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. ज्ञानार्णवः । देशके प्राप्त होनेसे खममें भी मनुष्यके कुबुद्धिका प्रादुर्भाव नहिं होता । भावार्थ-सत्पुरुघोंके उपदेशसे दुर्मति नष्ट होती है और सुमतिकी प्राप्ति होती है ।। ३८॥
तन्न लोके परं धाम न तत्कल्याणमनिमम्। .
यद्योगिपदराजीवसंश्रितैर्नाधिगम्यते ॥ ३९ ॥ अर्थ-जगतमें न तो ऐसा कोई उत्कृष्ट स्थान (मंदिर) है और न कोई ऐसा कल्याण है, जो योगीश्वरोंके चरणकमलोंकी सेवा करनेवालोंको प्राप्त न हो । अर्थात् योगीश्वरोंकी सेवा करनेवालोंको समस्त प्रकारके कल्याणकी प्राप्ति होती है ॥ ३९ ॥
अन्तीनमपि ध्वान्तमनादिप्रभवं नृणाम् ।
क्षीयते साधुसंसर्गप्रदीपप्रसराहतम् ॥ ४०॥ अर्थ-अनादिकालसे उत्पन्न हुआ पुरुषोंके अन्तरंगका अज्ञानरूप अन्धकार भी साधु महात्माओंके संसर्गरूपी प्रदीपके प्रकाशसे नष्ट हो जाता है । अर्थात् साधुओंकी संगतिसे अज्ञान नहिं रहता ॥ ४०॥
मालिनी। दहति दुरितकक्ष कर्मवन्धं लुनीते
वितरति यमसिद्धिं भावशुद्धिं तनोति । नयति जननतीरं ज्ञानराज्यं च दत्ते .
ध्रुवमिह मनुजानां वृद्धसेवैव साध्वी ॥४१॥ अर्थ-मनुष्योंको वृद्धोंकी (सत्पुरुषोंकी) सेवाही करना उत्तम है. क्योंकि यह वृद्धसेवा पापरूपी वनको दग्ध करती है; कर्मके बंधोंको काटती है, चारित्रकी सिद्धिको देती है, और भावोंकी शुद्धताका विस्तार करके संसारसे पारकर ज्ञानराज्यको (केवलज्ञान वा श्रुतज्ञानकी पूर्णताको) देती है ॥ ११ ॥ ___ इसप्रकार वृद्धसेवाका (सत्संगतिका) वर्णन किया । इस वृद्धसेवासे मनुप्यके समस्त दोष बिलाय जाते हैं और समस्त गुणोंकी प्राप्ति होती है ॥ अव ब्रह्मचर्य महाव्रतके कयनको समाप्त करते हुए कहते हैं,
विरम विरम संगान्मुश्च मुश्च प्रपंचं · विसृज विसृज मोहं विद्धि विद्धि खतत्त्वम् । कलय कलय वृत्तं पश्य पश्य स्वरूपं .
कुरु कुरु पुरुषार्थ निवृतानन्दहेतोः ॥ ४२ ॥ __ अर्थ-आचार्य महाराज उपदेश करते हैं कि हे आत्मन् ! तू परिग्रहसे विरक्त हो, विरक्त हो, प्रपंच मायाशल्यको छोड़ छोड़, और जगतके मोहको दूर कर दूर कर, निज़