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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् अर्थ-जो वृद्ध होकर हीनाचरणोंसे व्याकुल हो भ्रमता फिरै वह. वृद्ध होनेपरमी तरुण है और जो सत्संगतिसे रहता है वह तरुण होनेपरभी सत्पुरुषोंकीसी प्रतिष्ठा पाता है, अर्थात् वास्तविक वृद्ध कहाता है ॥ १० ॥ . साक्षादृद्धानुसेवेयं मातेव हितकारिणी।
विनेत्री वागिवासानां दीपिकेवार्थदर्शिनी ॥११॥ अर्थ-यह वृद्धसेवा साक्षात् माताकी समान तौ हित करनेवाली है और आप्तवाणी(जिनवाणी )के समान समीचीन शिक्षा देनेवाली है तथा दीपकके समान पदार्थोंको दिखानेवाली है ॥ ११ ॥
कदाचिदैववैमुख्यान्मातापि विकृतिं भजेत् ।
न देशकालयोः कापि वृद्धसेवा कृता सती ॥ १२ ॥ अर्थ-दैवके विमुख होनेसे माता तो कदाचित् पुत्रको अहितैपिणी होमी जाय तो आश्चर्य नहीं किन्तु कीहुई वृद्धसेवा किसीभी देश वा कालमें हानिकारक नहिं होती। भावार्थ-यह वृद्धसेवा निरन्तर जीवोंका हितही करती है ॥ १२ ॥
अन्ध एव वराकोऽसौ न सतां यस्य भारती।
श्रुतिरन्धं समासाद्य प्रस्फुरत्यधिकं हृदि ॥ १३ ॥ अर्थ-सत्पुरुषोंकी पवित्रवाणी जिसके कानोंमें प्राप्त होकर हृदयमें प्रकाशमान नहिं हुई वह रंक अन्धाही है । क्योंकि-सत्पुरुषोंकी वाणी मनुष्यके हृदयनेत्रको खोल देती है. सो जिसके हृदयमें सत्पुरुषोंकी वाणीने प्रवेश नहिं किया वह वास्तवमें अंधाही है ॥ १३ ॥
सत्संसर्गसुधास्यन्दैः पुंसां हृदि पवित्रिते।।
ज्ञानलक्ष्मीः पदं धत्ते विवेकमुदिता सती ॥ १४॥ . अर्थ-सत्पुरुषोंके सत्संसर्गरूपी अमृतके झरनेसे पुरुषोंकी हृदय पवित्र होकर उसमें विवेकसे प्रसन्न हुई ज्ञानलक्ष्मी निवास करती है । भावार्थ-सत्पुरुषोंकी संगतिसे समीचीन ज्ञानकी प्राप्ति होती है ॥ १४ ॥
वृद्धोपदेशधर्माशुं प्राप्य चित्तकुशेशयम् । .
न प्राबोधि कथं तत्र संयमश्रीः स्थितिं दधे ॥१५॥ · अर्थ-मनुष्योंका चित्तरूपी कमल यदि वृद्धपुरुषोंके उपदेशरूपी सूर्यको प्राप्त होजाय तो उसमें संयमरूप लक्ष्मी क्यों नहीं निवास करै? अर्थात्-सत्पुरुषोंके वचन जब चित्तमें रहैं तबही संयम दृढ रहता है ॥ १५॥