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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम्
अनन्तमहिमाकीर्ण प्रोत्तुङ्गं वृत्तपादपम् । वामा कुठारधारेव विच्छिनत्त्याशु देहिनाम् ॥
२७ ॥
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अर्थ — जीवोंके अनन्तमहिमायुक्त, बहुत ऊंचा चारित्ररूपी जो वृक्ष है उसे स्त्री कुल्हाड़ेके समान तत्काल काट डालती है ॥ २७ ॥
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लोचनेषु मृगाक्षीणां क्षिसं किंचित्तदञ्जनम् ।
येनापाङ्गैः क्षणादेव मुह्यत्यासां जगत्रयम् ॥ २८ ॥
अर्थ - आचार्य महाराज उत्प्रेक्षासे कहते हैं कि स्त्रियोंके नेत्रों में विधाताने कोई ऐसाही मोहिनी अंजन डाल दिया है कि जिससे इनके कटाक्षोंको देखनेसे क्षणभरमें यह तीनो लोक मोहित हो जाते हैं ॥ २८ ॥
कौतुकेन भ्रमेणापि दृष्टिर्लग्नाङ्गनामुखे ।
ऋष्टुं न शक्यते लोकैः पङ्कमग्नेव हस्तिनी ॥ २९ ॥
अर्थ — जैसे हस्तिनी कर्दममें फँसजाती है तो उसको निकालना बड़ा कठिन होता है, उसी प्रकार मनुष्योंकी दृष्टि कौतुक वा भ्रमसे भी स्त्रीके मुखपर पड़जाती है तो वे उसे खींचनेको असमर्थ होते हैं ॥ २९ ॥
एकत्र वसतिः साध्वी वरं व्याघोरगैः सह ।
पिशाचैर्वा न नारीभिर्निमेषमपि शस्यते ॥ ३० ॥
अर्थ — व्याघ्र, सर्प तथा पिशाचोंके साथ एकत्र रहना तो श्रेष्ठ है परन्तु स्त्रियोंके साथ निमेषमात्र भी रहना श्रेष्ठ नहीं है ॥ ३० ॥
भ्रूलताचलनैर्येषां स्खलत्यमरमण्डली ।
तेऽपि संसर्गमात्रेण वनितानां विडम्बिता: ॥ ३१ ॥
अर्थ - जिनकी भौंहरूपी लताके हिलनेमात्रसे देवोंका समूह स्खलित ( भयभीत वा क्षुभित) हो जाता है, ऐसे चक्रवर्त्यादिक बड़े २ महपुरुष भी स्त्रियों के संसर्गमात्रसे विडंबनारूप हो जाते हैं; फिर सामन्य मनुष्यका तो कहनाही क्या ? ॥ ३१ ॥ त्यजन्ति वनिताचौर रुद्धाश्चारित्रमौक्तिकम् ।
यतयोऽपि तपोभङ्गकलङ्कमलिनाननाः ॥ ३२ ॥
अर्थ — स्त्रीरूपी चोरके रोकनेसे ( ललकारनेपर ) तप भंग करनेके कलंकसे मलिन है मुख जिनका ऐसे मुनिगण भी अपना चारित्ररूपी मोतियोंका हार उसके सामने डाल देते हैं, अन्यकी तो कथाही क्या ? ॥ ३२ ॥
ब्रह्मचर्यच्युतः सद्यो महानप्यवमन्यते ।
सर्वैरपि जनैर्लोके विध्यात इव पावकः ॥ ३३ ॥