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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम्
पुस्तोपलविनिष्पन्नं दारुचित्रादिकल्पितम् ।
अपि वीक्ष्य वपुः स्त्रीणां मुह्यत्यङ्गी न संशयः ॥ १५ ॥ अर्थ--- स्त्रियोंके शरीरकी आकृति पुस्त ( मिट्टी आदिसे ) व पाषाणसे रची हुई तथा काष्ठ चित्रादिसे रची हुईको देखकरभी प्राणी मोहको प्राप्त होता है, इसमें कुछ सन्दे नहीं है. फिर साक्षात् स्त्रीको देखनेसे क्यों नहीं मोहित होगा ? अर्थात् अवश्यही होगा ॥ १५॥ यहां स्त्रीका संसर्ग होनेपर क्या क्या अवस्था होती हैं सो कहते हैं ---
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दृष्टिपातो भवेत्पूर्वं व्यामुह्यति ततो मनः ।
प्रणिधत्ते जनः पश्चात्तत्कथागुणकीर्तने ॥ १६ ॥
अर्थ
- प्रथम तौ स्त्रीपर दृष्टि पड़ती है, तत्पश्चात् चित्त मोहित होता है, तत्पश्चात् उस स्त्रीकी कथा और गुणकीर्तन में मन लगाता है ॥ १६ ॥
ततः प्रेमानुबन्धः स्यादुभयोरपि निर्भरम् । उत्कण्ठते ततश्चेतः प्रेमकाष्ठप्रतिष्ठितम् ॥ १७ ॥
अर्थ - गुणकीर्तनके पश्चात् दोनोंके परस्पर प्रेमस्नेहकी अतिशयता से प्रेमग्रंथि पड़ जाती है, तत्पश्चात् चित्त स्नेहकी सीमापर स्थित हो उत्कंठित रहता है कि क मिलाप हो ॥ १७ ॥
दान दाक्षिण्यविश्वासैरुभयोर्वर्द्धते स्मरः ।
ततः शाखोपशाखाभिः प्रीतिवल्ली विसर्पति ॥ १८ ॥
अर्थ - पूर्वोक्तप्रकारसे तथा दान - दाक्षिण्य - विश्वासादिसे दोनोंके शरीर में कामकी वृद्धि होती है । तत्पश्चात् शाखा उपशाखाओं से वह प्रीतिरूपी लता (वेल) विस्तृत हो जाती है ॥ १८ ॥
मनो मिलति चान्योऽन्यं निःशङ्कं संगलालसं । प्रणश्यति ततो लज्जा प्रेमप्रसरपीडिता ॥ १९ ॥
अर्थ---तत्पश्चात् निःशंक संगमका लोलुप दोनोंका मन परस्पर एक हो जाता है । तत्पश्चात् प्रेमके प्रसर ( वेग ) से पीडित होकर लज्जा नष्ट हो जाती है । अर्थात् दोनों ऐसे निर्लज्ज हो जाते हैं, कि बड़ोंके निकट रहनेपर भी परस्पर वचनालाप दृष्टिसाम्यता दि निर्लज्जताके कार्य होने लगते हैं ॥ १९ ॥
निःशङ्कं कुरुते नर्म रहोजल्पावलम्बितम् । वीक्षणादीन्धनोद्भूतः कामाग्निः प्रविजृम्भते ॥ २० ॥
१ “मृदा वा दारुणा वापि वस्त्रेणाप्यथ चर्मणा । लोहरत्नैः कृतं वापि पुस्तमित्यभिधीयते” ॥ १ ॥ अर्थ – मिट्टी, काष्ठ, कपडा, चमडा, लोह और रत्न इनसे निर्माण किये हुए पदार्थको पुस्त कहते हैं ॥१॥