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राय चन्द्रजैनशास्त्रमालायाम्
तासां पूर्णेन्दुगौरं मुखकमलमलं वीक्ष्य लीलारसाढ्यं
को योगी यस्तदानीं कलयति कुशलो मानसं निर्विकारम् || ३८ ॥ अर्थ - जिन स्त्रियोंके सुंदर भुजलताओंके आलिंगनादि विलासोंको प्राप्त होकर कुरबक, तिलक, अशोक और आम्रवृक्षभी अतिशय विकारको प्राप्त होते हैं अर्थात् फलते फूलते हैं तो उन स्त्रियोंके पूर्णचन्द्रमाके समान गौर लीलारसयुक्त मुखकमलको देखकर ऐसा कौनसा योगी यति प्रवीण है जो अपने मनको उस समय निर्विकार रखसकै ? अर्थात् कोई भी नहीं ॥ ३८ ॥
फिरभी विशेषताके साथ कहते हैं,
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तावत्ते प्रतिष्ठां परिहरति मनश्चापलं चैष तावत् तावत्सिद्धान्तसूत्रं स्फुरति हृदि परं विश्वतत्त्वैकदीपम् । क्षीराकूपारवेलावलयविलसितैर्मानिनीनां कटाक्षे
र्यावन्नो हन्यमानं कलयति हृदयं दीर्घदोलायितानि ॥ ३९ ॥ अर्थ —- यह पुरुष जबतक क्षीरसमुद्र की लहरोंके वलयसरीखे विलासरूप मानिनी स्त्रियोंके कटाक्षोंसे हननेमें आये हुए हृदयके दीर्घ दोलायमान चंचलभावकों प्राप्त नहिं होता तबतकही यह मनुष्य प्रतिष्ठाको धारण करता और मनकी चंचलताको छोड़कर स्थिरता रखसकता है और तबतकही समस्त तत्त्वोंको प्रकाश करनेके लिये दीपक के सम सिद्धान्तसूत्र हृदयमें स्फुरित होते हैं । अर्थात् स्त्रियोंके सुंदर कटाक्षोंको देखनेसे किसका मन स्थिर रह सकता है ? ॥ ३९ ॥
संसर्गाद्दर्बलां दीनां संत्रस्तामप्यनिच्छतीम् ।
कुष्ठिनीं रोगिणीं जीण दुःखितां क्षीणविग्रहाम् ॥ ४० ॥ निन्दितां निन्द्यजातीयां खजातीयां तपखिनीम् । बालामपि तिरश्चीं स्त्रीं कामी भोक्तुं प्रवर्तते ॥ ४१ ॥
अर्थ - स्त्रीके संसर्गसे भ्रष्ट हुये कामी पुरुष दुर्बल दीन ( भिखारिनी), भयभीत, विनाइच्छती, कोढ़नी, रोगिणी, बुढ़िया, दुखिनी, क्षीणशरीरवाली, निंदित ( वेश्यादिक) तथा निन्द्यजातिकी चंडालनी आदि, तथा खजातीया, तपखिनी, बालिका, और तो क्या तिर्यचनीसेभी व्यभिचार करने लग जाते हैं. इसकारण ब्रह्मचारियोंको स्त्रीका संसर्ग सर्वथा छोड़ना चाहिये ॥ ४० ॥ ४१ ॥
अङ्गनापाङ्गबाणाली प्रपतन्तीं निवारय ।
विधाय हृदयं धीर दृढं वैराग्यवर्मितम् ॥ ४२ ॥
अर्थ — अब आचार्य महाराज उपदेश करते हैं कि - हे धीर वीर, अपने हृदयको